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मोक्षशास्त्र जीवको विकार करने में मोहकर्मका विपाक निमित्त है। कर्मका विपाक कर्म में होता, जीवमे नहीं होता। जीवको अपने विभावभावका जो मनुभव होता है सो जीवका विपाक-अनुभव है ।
(२) यह सूत्र पुद्गल कर्मके विपाक-अनुभवको बतलानेवाला है। बंध होते समय जीवका जैसा विकारोभाव हो उसके अनुसार पुद्गलकम में अनुभाग बन्ध होता है और जब यह उदयमे श्रावे तब यह कहा जाता है कि कर्मका विपाक, अनुभाग या अनुभव हुप्रा ॥२१॥
अनुभागवन्ध कमेके नामानुसार होता है
स यथानाम ॥२२॥ अर्थ-[ सः ] यह अनुभाग बन्ध [ यथानाम ] कर्मोके नामके अनुसार ही होता है।
टीका जिस कर्मका जो नाम है उस कर्ममें वैसा ही अनुभागवन्य पड़ता है । जैसे कि ज्ञानावरण कर्ममें ऐसा अनुभाग होता है कि 'जव ज्ञान रुके तब निमित्त हो' दर्शनावरण कर्ममे 'जव दर्शन रुके तव निमित्त हो' ऐसा अनुभाग होता है ॥२२॥ अब यह बतलाते हैं कि फल देनेके बाद कर्मोका क्या होता है
ततश्च निर्जरा ॥२३॥ ___ अर्थ-[ततः च] तीन, मध्यम या मंद फल देनेके बाद [निर्जरा] उन कर्मोकी निर्जरा हो जाती है अर्थात् उदयमें आनेके बाद कर्म आत्मासे जुदे हो जाते हैं।
१-आठों कर्म उदय होनेके बाद झड़ जाते हैं इनमें कर्मकी निर्जराके दो भेद हैं-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा।
(१) सविपाक निर्जरा-आत्माके साथ एक क्षेत्रमें रहे हुए कर्म अपनी स्थिति पूरी होनेपर अलग होगये यह सविपाक निर्जरा है।
(२) अविपाक निर्जरा-उदयकाल प्राप्त होनेसे पहले जो कर्म आत्माके पुरुषार्थके कारण आत्मासे पृथक् होगये यह अविपाक निर्जरा है । इसे सकामनिर्जरा भी कहते हैं ।