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अध्याय ८ सूत्र १७-१८-१९-२०-२१ अर्थ-[मायुषः] आयु कर्मको उत्कृष्ट स्थिति [त्रविशत्सागरोपमाणि] तेतीस सागरकी है ॥१७॥
वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति बतलाते हैं अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥
अर्थ-[ वेदनीयस्य अपरा] वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति [ द्वादशमुहूर्ताः ] बारह मुहूर्तकी है ॥१८॥
नाम और गोत्र कर्मकी जघन्य स्थिति
नामगोत्रयोरष्टौ ॥१६॥ अर्थ-[ नामगोत्रयोः ] नाम' और गोत्र कर्मकी जघन्य स्थिति [मष्टो ] आठ मुहूर्तकी है ॥१९॥ अब शेष ज्ञानावरणादि पाँच कर्मोकी जघन्य स्थिति बतलाते हैं
शेषाणामंतमुहूर्ता ॥२०॥ अर्थ-[ शेषारणां] बाकीके अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय और आयु इन पांच कर्मोकी जघन्य स्थिति [अन्तर्मुहूर्ता] अंतर्मुहूर्त की है।
यहां स्थितिबन्धके उपभेदोंका वर्णन पूर्ण हुआ ॥२०॥
अब अनुभागबन्धका वर्णन करते हैं, ( अनुभागबन्धको अनुभवबन्ध भी कहते हैं)
अनुभवबन्धका लक्षण
विपाकोऽनुभवः ॥२१॥ अर्थ-[ विपाक: ] विविध प्रकारका जो पाक है । अनुभवा ] सो अनुभव है।
टीका (१) मोहकर्मका विपाक होने पर जीव जिसप्रकारका विकार करे उसीरूपसे जीवन फल भोगा कहा जाता है। इसका इतना ही अर्थ है कि