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मोक्षशास्त्र (२) त्रिकालवर्ती समस्त भवोंमें (जन्मोमें) मन-वचन-कायके थोगके निमित्तसे यह कर्म पाते है । (३) ये कर्म सूक्ष्म है-इन्द्रियगोचर नहीं हैं।
(४) आत्माके सर्व प्रदेशोंके साथ दूध पानीकी तरह एक क्षेत्रमैं ये कर्म व्याप्त हैं।
(५) आत्माके सर्व प्रदेशोंमें अनंतानंत पुद्गल स्थित होते हैं ।
(६) एक एक आत्माके असंख्य प्रदेश हैं, इस प्रत्येक प्रदेशमें संसारी जीवोके अनन्तानन्त पुद्गलस्कंध विद्यमान हैं।
यहाँ प्रदेशबंधका वर्णन पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥
इस तरह चार प्रकारके बंधका वर्णन किया। अव कर्मप्रकृत्तियोंमेंसे पुण्यप्रकृतियां कितनी हैं और पाप प्रकृति कितनी हैं यह बतलाकर इस अध्यायको पूर्ण करते हैं।
पुण्य प्रकृतियां बतलाते हैं सद्व घशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २५ ॥
अर्थ-[ सघशुभायु मगोत्राणि ] सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम और शुभगोत्र [ पुण्यम् ] ये पुण्य प्रकृतियां हैं।
टीका १-घातिया कर्मोकी ४७ प्रकृतियां हैं, ये सब पापरूप हैं; अधातिया कर्मोकी १०१ प्रकृतियाँ हैं, उनमें पुण्य और पाप दोनों प्रकार हैं। उनमेसे निम्न ६८ प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं
(१)सातावेदनीय(२)तिर्यंचायु(३)मनुष्यायु(४)देवायु(५) उच्चगोत्र (६)मनुष्यगति (७)मनुष्यगत्यानुपूर्वी(८)देवगति (९) देवगत्यानुपूर्वी (१०) पंचेन्द्रिय जाति (११-१५) पाँच प्रकारका शरीर (१६-२०) शरीरके पाँच प्रकारके बन्धन, (२१-२५) पाँच प्रकारका संघात (२६-२८) तीन प्रकार - का अंगोपांग (२६-४८) स्पर्श, वर्णादिककी बीस प्रकृति (४९) समचतुरसंस्थान (५०) वज्रर्षभनाराचसंहनन, (५१) अगुरुलघु (५२) परघात,