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मध्याय है सूत्र १६
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उसे सम्यक् विविक्त शय्यासन कहते हैं ।
(६) सम्यक् कायक्लेश- सम्यग्दृष्टि जीवके शारीरिक श्रासक्ति घटानेके लिये प्रतापन आदि योग धारण करते समय जो अन्तरंग परिगामों की शुद्धता होती है उसे सम्यक् कायक्लेश कहते हैं ।
२– 'सम्यक्' शब्द यह बतलाता है कि सम्यग्दृष्टिके ही ये तप होते हैं मिथ्यादृष्टि के तप नही होता ।
३- जब सम्यग्दृष्टि जीव अनशनकी प्रतिज्ञा करता है उस समय निम्न लिखित बातें जानता है । -
( १ ) आहार न लेने का राग मिश्रित विचार होता है वह शुभभाव है और इसका फल पुण्यबंधन है, में इसका स्वामी नही हूँ ।
(२) अन्न, जल आदि पर वस्तुऐं हैं, आत्मा उसे किसी प्रकार न तो ग्रहण कर सकता और न छोड़ सकता है किन्तु जब सम्यग्दृष्टि जीव पर वस्तु सम्बन्धी उस प्रकारका राग छोड़ता है तब पुद्गल परावर्तनके नियम अनुसार ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध होता है कि उतने समय उसके अन्न पानी आदिका संयोग नही होता ।
(३) अन्न जल ग्रादिका संयोग न हुआ यह परद्रव्यकी क्रिया है, उससे आत्मा के धर्म या अधर्म नही होता ।
(४) सम्यग्दृष्टि जीवके राग का स्वामित्व न होने की जो सम्यक् मान्यता है वह दृढ़ होती है, और इसीलिये यथार्थ अभिप्रायपूर्वक जो अन्न, जल आदि लेनेका राग दूर हुआ वह सम्यक् अनशन तप है, यह वीतरागता का अश है इसीलिये वह धर्मका अंश है । उसमें जितने अंशमे अंतरंग परिणामों को शुद्धता हुई और शुभाशुभ इच्छाका निरोध हुआ उतने अंशमे सम्यक् तप है और यही निर्जराका कारण है ।
छह प्रकारके वाह्य और छह प्रकारके अंतरंग इन वारह प्रकारके तप के सम्वन्धमे ऊपर लिखे अनुसार समझ लेना ।