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मोक्षशास्त्र
सम्यक् तप की व्याख्या (१) स्वरूपविश्रांत निस्तरंग चैतन्य प्रतपनात् तपः अर्थात् स्वरूप की स्थिरतारूप,-तरंगोंके विना-लहरोंके विना (निर्विकल्प ) चैतन्य का प्रतपन होना ( देदीप्यमान होना सो तप है)।
(प्रवचनसार अ० १ गा० १४ की टीका ) (२) सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मपरमात्मनि प्रतपनं तपः अर्थात् सहज निश्चयनय रूप परमस्वभावमय परमात्माका प्रतपन होना अर्थात् दृढ़तासे तन्मय होना सो तप है । (नियमसार गा० ५५ को टोका)
(३) प्रसिद्धशुद्ध कारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः अर्थात् प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्त्वमें सदा अतर्मुखरूपसे जो प्रतपन अर्थात् लीनता है सो तप है । (नियमसार टोका गाथा ११८ का शीर्षक)
(४) आत्मानमात्मना संधत्त इत्यध्यात्मं तपन अर्थात् आत्माको प्रात्माके द्वारा धरना सो अध्यात्म तप है। (नियमसार गा० १२३की टीका)
(५) इच्छानिरोधः तपः अर्थात् शुभाशुभ इच्छाका निरोध करना (-अर्थात् स्वरूपमें विश्रांत होना ) सो तप है।
५. तप के भेद किसलिये हैं ? प्रश्न-यदि तपकी व्याख्या उपरोक्त प्रमाण है तो उस तपके भेद नही हो सकते, तथापि यहाँ तपके बारह भेद क्यों कहे है ?
उत्तर-शास्त्रोंका कथन किसी समय उपादान (निश्चय ) की अपेक्षा से और किसी समय निमित्त ( व्यवहार ) की अपेक्षासे होता है। भिन्न-भिन्न निमित्त होनेसे उसमें भेद होते हैं किन्तु उपादान तो आत्माका शुद्ध स्वभाव है अत: उसमे भेद नही होता । यहाँ तपके जो बारह भेद बतलाये हैं वे भेद निमित्तको अपेक्षासे हैं।
६-जिस जीवके सम्यग्दर्शन न हो वह जीव बनमें रहे, चातुर्मास में वृक्षके नीचे रहे ग्रीष्म ऋतुमें अत्यन्त प्रखर किरणोंसे संतप्त पर्वतके शिखर पर शासन लगावे, शीतकालमें खुले मैदानमें ध्यान करे, अन्य