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मोक्षशास्त्र हैं। वह मिथ्यात्वदशामें स्व से राग द्वेषरूप होता है और सम्यक्त्वदशामेंशिव भाउ अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप होता है।
२-जीवको कर्मका उदय कुछ असर नहीं कर सकता अर्थात् निमित्त उपादानको कुछ कर नहीं सकता। इन्द्रियोंके भोग, लक्ष्मी, सगे सम्बन्धी या मकान आदिके सम्बन्धमें भी यही नियम है । यह नियम श्री समयसार नाटकके सर्वविशुद्धि द्वारमें निम्नरूपसे दिया है:
-सवैयाकौऊ शिष्य कह स्वामी राग रोष परिनाम,
ताको मूल प्रेरक कहहु तुम कौन है ? पुद्गल करम जोगं किधों इन्द्रिनिको भोग,
किधी धन किधौ परिजन किधौ भौन है ॥ गुरु केहैं छहों दर्व अपने अपने रूप,
सबनिको सदा असहाई परिनीन है। कोउ दरब काहुकों न प्रेरक कदाचि तातै,
राग दोष मोह मृषा मदिरा अचौन है ॥६॥ अर्थ-शिष्य कहता है-है स्वामी ! राग द्वेष परिणामका मूल प्रेरक कौन है सो श्राप कही, पुद्गल कर्म या इन्द्रियोके भोग या धन या घरके मनुष्य या मकान ? श्री गुरु समाधान करते हैं कि छहों द्रव्य अपने अपने स्वरूपमें सदा असहाय परिणमते हैं । कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कभी भी प्रेरक नही है । राग द्वेषका कारण मिथ्यात्वरूपी मदिराका पान है।
(१०) पंचाध्यायी अ० १ गा० ८६ में भी वस्तुकी हरएक अवस्था(-पर्याय भी ) "स्वतः सिद्ध" एवं 'स्वसहाय' है ऐसा कहा है
वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि। तस्मादुत्पादस्थिति भंगमयं तत् सदेतदिह नियमात् ॥ ८९॥ .
अर्थ-जैसे वस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे ही यह "स्वतः परिणमनशील" भी है, इसलिये यहाँ पर यह सत् नियमसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है । इसप्रकार किसी भी वस्तुकी कोई भी अवस्था, किसी भी