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अध्याय ५ सूत्र ३० उसके क्षेत्रमें रहती है । जीवमें कर्मकी शक्ति नहीं जा सकती इसलिए कर्म जीवको कभी भी आधीन नहीं कर सकता। यह नियम श्रीसमयसार नाटकमें दिया गया है वह उपयोगी होनेसे यहाँ दिया जाता है:१-अज्ञानियोंके विचारमें रागद्वेषका कारण:
-दोहाकोई मूरख यों कहै, राग द्वेष परिणाम । पुद्गलकी जोरावरी, वरतै आतमराम ॥६२॥ ज्यों ज्यों पुद्गल बल करे धरि धरि कर्मज भेष ।
रागदोषको परिणमन, त्यौ त्यौं होइ विशेष ॥६३॥ अर्थः-कोई कोई मूर्ख ऐसा कहते हैं कि आत्मामें राग-द्वेष भाव पुद्गलकी जबरदस्तीसे होता है ॥६२।। पुद्गल कर्मरूप परिणमनके उदय मे जितना जितना बल करता है उतनी उतनी बाहुल्यतासे राग-द्वेष परिणाम होते हैं ।।६३॥ --अज्ञानीको सत्य मार्गका उपदेश
-दोहाइहि विध जो विपरीत पख, गहै सद्दहै कोइ । सो नर राग विरोध सों, कबहूँ भिन्न न होइ॥६४॥ सुगुरु कहैं जगमे रहै, पुद्गल संग सदीव । सहज शुद्ध परिणमनिको, औसर लहै न जीव ॥६॥ तातै चिद्भावनि विष, समरथ चेतन राउ । राग विरोध मिथ्यातमे, समकितमें सिव भाउ ॥६६।।
(देखो समयसार नाटक पृष्ठ ३५३ ) अर्थ:-ऊपर जो रीति कही है वह तो विपरीत पक्ष है । जो कोई उसे ग्रहण करता है या श्रद्धान करता है उस जीवके राग द्वेष और मोह कभी पृथक होते ही नही । श्री गुरु कहते हैं कि जीवके पुद्गलका साथ सदा (अनादिका) रहता है तो फिर सहज शुद्ध परिणमनका अवसर जीवको कभी मिले ही नहीं। इसलिये चैतन्यका भाव करनेमे चेतन राजा ही समर्थ