________________
२४१
अध्याय २ सूत्र ६ वचनमें जहाँ 'सामान्य' सजा दी गई है वहाँ सामान्यपद से आत्मा को ही ग्रहण करना चाहिए।
शंका-यह किस पर से जाना जाय कि सामान्य पदसे आत्मा ही समझना चाहिए?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि "पदार्थ के आकार अर्थात् भेद किये बिना" इस शास्त्र वचनसे उसकी पुष्टि हो जाती है। इसी को स्पष्ट कहते है-बाह्य पदार्थोका आकाररूप प्रतिकर्म व्यवस्थाको न करने पर ( अर्थात् भेदरूप से प्रत्येक पदार्थको ग्रहण किये बिना') जो सामान्य ग्रहण होता है उसे 'दर्शन' कहते है । और इस अर्थको दृढ करने के लिये कहते हैं कि "यह अमुक पदार्थ है" यह कुछ है इत्यादिरूपसे पदार्थो को विशेषता किये बिना जो ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं।
शंका-यदि दर्शन का लक्षण ऊपर कहे अनुसार मानोगे तो 'अनध्यवसाय' को दर्शन मानना पड़ेगा।
समाधान नही, ऐसा नहीं हो सकता, क्योकि दर्शन बाह्य पदार्थो का निश्चय न करके भी स्वरूपका निश्चय करनेवाला है, इसलिये अनध्यवसायरूप नही है। विषय और विषयिके योग्यदेशमे होनेसे पूर्वको अवस्थाको दर्शन कहते हैं ।
[ श्री धवला भाग १ पृष्ठ १४५ से १४८, ३८० से ३८३ तथा वृहद्रव्यसंग्रह हिन्दी टीका पृष्ठ १७० से १७५ गाथा ४४ की टीका ] ऊपर जो दर्शन और ज्ञानके बीच भेद बताया गया है
वह किस अपेक्षा से है ? आत्माके ज्ञान और दर्शन दो भिन्न गुण बताकर उस ज्ञान और दर्शन का भिन्न भिन्न कार्य क्या है यह ऊपर बताया है, इसलिये एक गुण से दूसरे गुरणके लक्षण भेदको अपेक्षासे ( भेद नयसे ) वह कथन है ऐसा समझना चाहिए।
५. अभेदापेक्षासे दर्शन और ज्ञानका अर्थ दर्शन और ज्ञान दोनों आत्माके गुण हैं और वे आत्मासे अभिन्न
३१