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अध्याय १ सूत्र १६
७३ जव मंदताके कारण जीव एक वर्णको ग्रहण करता है तब उसे 'एक' पदार्थका प्रवाह होता है।
बहुविध-एकविध-जिस समय जीव विशुद्धिके बलसे शुक्ल कृष्णादि प्रत्येक वर्णके दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात, और अनन्त भेद प्रभेदोंको ग्रहण करता है उससमय उसे 'बहुविध' पदार्थका अवग्रह होता है।
जिस समय मदताके कारण जीव शुक्ल कृष्णादि वर्णोमेसे एक प्रकारके वर्णको ग्रहण करता है उससमय उसे 'एकविध पदार्थका अवग्रह होता है।
क्षिप्र-अक्षिप्र-जिस समय जीव तीन क्षयोपशम ( विशुद्धि ) के बलसे शुक्लादि वर्णको जल्दी ग्रहण करता है उस समय उसे क्षिप्र पदार्थका अवग्रह होता है।
विशुद्धिकी मदताके कारण जिस समय जीव देरसे पदार्थको ग्रहण करता है उस समय उसके 'अक्षिप्र' पदार्थका अवग्रह होता है।
अनिःसृत-निःसृत-जिस समय जीव विशुद्धिके बलसे किसी पचरंगी वस्त्र या चित्रादिके एक बार किसी भागमेसे पांच रगोंको देखता है उस समय यद्यपि शेष भागकी पंचरंगीनता उसे-दिखाई नहीं दी है तथा उस समय उसके समक्ष पूरा वस्त्र बिना खुला हुआ (घडी किया हुआ ही) रखा है तथापि वह उस वस्त्रके सभी भागोंकी पंचरंगीनताको ग्रहण करता है, यह 'अनिःसृत' पदार्थका अवग्रह है।
जिस समय विशुद्धिकी मदताके कारण जीवके संमुख बाहर निकाल कर रखे गये पचरंगी वस्त्रके पॉचों रंगोंको जीव ग्रहण करता है उससमय उसे 'निःसृत' पदार्थका अवग्रह होता है ।।
अनुक्त-उक्त-सफेद-काले अथवा सफेद-पीले आदि रंगोंकी मिलावट करते हुए किसी पुरुषको देखकर ( वह इसप्रकारके रगोको मिलाकर अमुक प्रकारका रग तैयार करेगा ) इसप्रकार विशुद्धिके बलसे विना कहे ही जान लेता है, उस समय उसे 'अनुक्त' पदार्थका अवग्रह होता है । अथवा