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________________ मोक्षशास ७३८ है । जो असंख्यात गुणी निर्जरा कही है वह निर्जरा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहलेकी एकदम समीप की ( अत्यंत निकटकी ) आत्माकी दशामें होनेवाली निर्जरासे असंख्यात गुणी जानना । प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके पहले तीन कररण होते हैं, उनमें प्रनिवृत्ति करके अंत समय में वर्तनेवाली विशुद्धतासे विशुद्ध, जो सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि है उसके श्रायुको छोड़कर सात कर्मोकी जो निर्जरा होती है उससे असंख्यात गुणी निर्जरा असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान प्राप्त करने पर अंतर्मुहूर्त पर्यंत प्रतिसमय (निर्जरा) होती है अर्थात् सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टिकी निर्जरा से सम्यग्दृष्टिके गुणश्रेणी निर्जरा में असंख्यगुरणा द्रव्य है । यह चौथे गुणस्थानवाले अविरत - सम्यग्दृष्टि की निर्जरा है । (२) जब यह जीव पाँचवाँ गुणस्थान- श्रावकदशा प्रगट करता है तब अन्तर्मुहूर्त पर्यंत निर्जरा होने योग्य कर्मपुद्गलरूप गुणश्रेणी निर्जराद्रव्य चौथे गुणस्थानसे असंख्यात गुणा है । (३) पांचवें से जब सकलसंयमरूप अप्रमत्तसंयत (-सातवीं ) गुणस्थान प्रगट करे तब पंचमगुणस्थानसे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । पाँचवेके बाद पहले सातवाँ गुणस्थान प्रगट होता है और फिर विकल्प उठने पर छट्टा प्रमत्त गुणस्थान होता है । सूत्रमें 'विरत' शब्द कहा है इसमें सातवे और छट्टो दोनो गुणस्थानवाले जीवोंका समावेश होता है । (४) तीन करणके प्रभावसे चार अनन्तानुबन्धो कषायको, बारह कपाय तथा नव नोकषायरूप परिरणमा दे, उन जीवोंके अन्तर्मुहूर्त पर्यंत प्रतिसमय असख्यात गुणी द्रव्य निर्जरा होती है । अनंतानुबंधीका यह विसंयोजन चौथे, पांचवे, घट्ट े और सातवें, इन चार गुणस्थानों में होता है । (५) अनन्त वियोजकसे असंख्यात गुणी निर्जरा दर्शनमोहके क्षपकके (उस जीवके) होती है । पहले मनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करने के वाद दर्शनमोहके त्रिकका क्षय करे ऐसा क्रम है । (६) दर्शनमोहका क्षपण करनेवालेसे 'उपशमक' के असंख्यात गुणी निर्जरा होती है
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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