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अध्याय १ परिशिष्ट १
१३१ उत्तर:-वास्तवमे तो सम्यग्दर्शन पर्याय है, किन्तु जैसा गुण है वैसी ही उसकी पर्याय प्रगट हुई है-इसप्रकार गुण पर्यायकी अभिन्नता वतानेके लिये कही कही उसे सम्यक्त्व गुण भी कहा जाता है; किन्तु वास्तवमे सम्यक्त्व पर्याय है, गुण नही । जो गुण होता है वह त्रिकाल रहता है। सम्यक्त्व त्रिकाल नही होता किन्तु उसे जीव जब अपने सत् पुरुषार्थसे प्रगट करता है तब होता है । इसलिये वह पर्याय है।
सभी सम्यग्दृष्टियोंका सम्यग्दर्शन समान है
प्रश्नः-छमस्थ जीवोको सम्यग्दर्शन होता है और केवली तथा सिद्धभगवानके भी सम्यग्दर्शन होता है, वह उन सबके समान होता है या असमान ?
उत्तरः-जैसे छद्मस्थ (-अपूर्णज्ञानी) जीवके श्रुतज्ञानके अनुसार प्रतीति होती है उसीप्रकार केवलीभगवान और सिद्धभगवानके केवलज्ञानके अनुसार प्रतीति होती है। जैसे तत्त्वश्रद्धान छद्मस्थको होता है वैसा ही केवली-सिद्धभगवानके भी होता है। इसलिये ज्ञानादिकी हीनाधिकता होने पर भी तिर्यंच आदिके तथा केवली और सिद्धभगवानके सम्यग्दर्शन तो समान ही होता है; क्योकि जैसी आत्म स्वरूपकी श्रद्धा छमस्थ सम्यग्दृष्टि को है वैसी ही केवली भगवानको है। ऐसा नही होता कि चौथे गुरणस्थान मे शुद्धात्माकी श्रद्धा एक प्रकारकी हो और केवली होने पर अन्य प्रकारकी हो, यदि ऐसा होने लगे तो चौथे गुणस्थानमे जो श्रद्धा होती है वह यथार्थ नही कहलायगी किन्तु मिथ्या सिद्ध होगी। [ देहलीका मोक्षमार्ग - प्रकाशक पृष्ठ ४७५ ]|
सम्यग्दर्शनके भेद क्यों कहे गये हैं ? प्रश्न:-यदि सभी सम्यग्दृष्टियोका सम्यग्दर्शन समान है तो फिर आत्मानुशासनकी ग्यारहवी गाथामे सम्यग्दर्शनके दश प्रकारके भेद क्यो कहे गये हैं ?