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अध्याय 8 सूत्र ४०-४१-४२
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माननेसे केवली भगवानके मनके निमित्तका प्रभाव होनेसे उनके वचनका अभाव हो जायगा । ( श्री धवला पु० १ पृष्ठ २८७-२८८ ) ५ - क्षपक और उपशमक जीवोंके वचनयोग सम्बन्धी स्पष्टीकरण
शंका- जिनके कषाय क्षीण होगई है ऐसे जीवोके श्रसत्य वचन - योग कैसे हो सकता है ?
समाधान-असत्यवचनका कारण अज्ञान है और वह बारहवे गुणस्थान तक होता है, इस अपेक्षासे बारहवे गुणस्थान तक असत्यचञ्चनका सद्भाव होता है; और इसीलिये इसमे भी कोई विरोध नही है कि उभयसंयोगज सत्यमृषावचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है ।
शंका - वचनगुप्तिका पूर्णरीत्या पालन करनेवाले कषाय रहित जीवोंके वचनयोग कैसे संभव होता है ?
समाधान - कषाय रहित जीवों में अंतर्जल्प होनेमे कोई विरोध नहीं है ( श्री धवला पु० १ पृष्ठ २५६ ) ॥ ४० ॥
शुक्लध्यानके पहले दो भेदोंकी विशेषता बतलाते हैं एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ॥
अर्थ - [ एकाश्रये ] एक ( - परिपूर्ण ) श्रुतज्ञानीके आश्रयसे रहनेवितर्क वाले [ पूर्वे ] शुक्लध्यानके पहले दो भेद [ सवितर्क वीचारे और वीचार सहित हैं परन्तु -
अवीचारं द्वितीयम् ॥ ४२ ॥
अर्थ – [ द्वितीयम् ] ऊपर कहे गये शुक्लध्यानो में से दूसरा शुक्लध्यान [ श्रवीचारं ] वीचारसे रहित है, किन्तु सवितर्क होता है । टीका
१–४२ वां सूत्र ४१ वें सूत्रका अपवादरूप है, अर्थात् शुक्लव्यान का दूसरा भेद वीचार रहित है । जिसमें वितर्क और वीचार दोनो हों वह