________________
अध्याय है सूत्र ११
६६५
आहार ग्रहण तो निंद्य हुआ; यदि ऐसा श्रतिशय भी मानें कि उन्हें कोई नही देखता तो भी ग्राहार ग्रहरणका निद्यपन रहता है । पुनश्च भगवान के पुण्यके कारण से दूसरेके ज्ञानका क्षयोपशम ( - विकास ) किस तरह आवृत हो जाता है ? इसलिये भगवानके आहार मानना और दूसरा न देखे ऐसा अतिशय मानना ये दोनो वातें न्याय विरुद्ध है ।
५. कर्म सिद्धांत के अनुसार केवलीके अन्नाहार होता ही नहीं
(१) जव असाता वेदनीयकी उदीरणा हो तब क्षुधा - भूख उत्पन्न होती है-लगती है, इस वेदनीयको उदीरणा छट्टो गुणस्थान तक ही है, इससे ऊपर नही । अतएव वेदनीयकी उदीरणा के बिना केवलीके क्षुधादिकी वाघा कहाँसे हो ?
(२) जैसे निद्रा और प्रचला इन दो दर्शनावरणी प्रकृतिका उदय वारहवें गुरणस्थान पर्यंत हे परन्तु उदीरणा बिना निद्रा नही व्यापती - अर्थात् निद्रा नही आती । पुनश्च यदि निद्रा कर्मके उदयसे हो ऊपरके गुणस्थानों में निद्रा आजाय तो वहाँ प्रमाद हो मोर ध्यानका प्रभाव हो जाय । यद्यपि निद्रा, प्रचलाका उदय बारहवें गुरणस्थान तक है तथापि अप्रमत्तदशा में मंदउदय होनेसे निद्रा नही व्यापती (-नही रहती ) । पुनश्च संज्वलनका मंद उदय होनेसे अप्रमत्त गुणस्थानोमे प्रमादका प्रभाव है, क्योकि प्रमाद तो संज्वलनके तीव्र उदयमे ही होता है । ससारी जीवके वेदके तीव्र उदय मे युक्त होनेसे मैथुन सज्ञा होती है और वेदका उदय नवमे गुणस्थान तक है; परन्तु श्रेणी चढे हुए संयमी मुनिके वेद नोकषायका मंद उदय होनेसे मैथुन सज्ञाका अभाव है; उदयमात्रसे मैथुनको वांच्छा उत्पन्न नही होती । (३) केवली भगवानके वेदनीयका प्रति मद उदय है; इसीसे क्षुधादिक उत्पन्न नही होते; शक्तिरहित असाता वेदनीय केवलीके क्षुधादिकके लिये निमित्तता के योग्य नही है । जैसे स्वयभूरमरण समुद्रके समस्त जलमें अनन्तवे भाग जहरकी करणी उस पानीको विषरूप होनेके लिये योग्य निमित्त नही है; उसीप्रकार अनन्तगुण अनुभागवाले सातावेदनीयके उदयसहित केवली भगवानके अनन्तवे भागमे जिसका असंख्यातवार खंड होगया है ऐसा असातावेदनीय कर्म क्षुधादिककी वेदना उत्पन्न नही कर सकता ।