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________________ मोक्षशास्त्र (४) अशुभ कर्म प्रकृतियोंकी विप, हलाहलरूप जो शक्ति है उसका श्रधःप्रवृत्तकररणमें अभाव हो जाता है मोर निम्ब ( नीम ) कांजीरूप रस रह जाता है । अपूर्वकररण गुणस्थान में गुरणश्रेणी निर्जरा, गुरण संक्रमण, स्थितिकांडोत्किर्ण और अनुभाग कांडोत्किर्ण ये चार आवश्यक होते हैं; इसीलिये केवली भगवानके असातावेदनीय आदि श्रप्रशस्त प्रकृतियोंका रस श्रसंख्यातवार घटकर अनन्तानन्तवे भाग रह गया है, इसी कारण असाता में सामर्थ्य कहाँ रही है जिससे केवली भगवानके क्षुवादिक उत्पन्न करने में निमित्त होता ? ( अर्थ प्रकाशिका पृष्ठ ४४६ द्वितीयावृत्ति ) ६. सू० १०-११ का सिद्धान्त और ८ वें सूत्रके साथ ६६६ उसका संबंध यदि वेदनीय कर्मका उदय हो किन्तु मोहनीय कर्मका उदय न हो तो जीवके विकार नही होता ( सूत्र ११ ) क्योकि जीवके अनन्तवीर्य प्रगट हो चुका है । वेदनीय कर्मका उदय हो और यदि मोहनीय कर्मका मंद उदय हो तो वह भी विकारका निमित्त नही होता ( सूत्र १० ) क्योकि वहाँ जीवके अधिक पुरुषार्थ प्रगट होगया है । दशवे गुणस्थानसे लेकर १३ वे गुणस्थान तकके जीवोंके पूर्णपरीपहजय होता है और इसीलिये उनके विकार नही होता । यदि उत्तम गुणस्थानवाले परीषहजय नही कर सकते तो फिर आठवे सूत्रका यह उपदेश व्यर्थ हो जायगा कि 'संवरके मार्ग से च्युत न होने श्रौर निर्जराके लिये परीषह सहन करना योग्य है ।' दशवें तथा ग्यारहवे सूत्रमें उत्तम गुरणस्थानोंमें जो परीषह कही हैं वे उपचारसे हैं निश्चयसे नही, ऐसा समझना ॥११॥ छट्ठेसे नवमें गुणस्थान तककी परीषह बादरसाम्पराये सर्वे ॥१२॥ अर्थ – [ बादरसांपराये ] बादरसांपराय अर्थात् स्थूलकषायवाले जीवोंके [ सर्वे ] सर्व परीषह होती हैं ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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