________________
६६७
अध्याय ६ सूत्र १२-१३-१४
६९७ ".... :
टीका छ8से नवमे गुणस्थानको बादरसांपंराय कहते हैं। इन गुणस्थानोंमे परीषहके कारणभूत सभी कर्मोका उदय है, किन्तु जीव जितने अंशमे उनमें युक्त नही होता उतने अंशमें (आठवें सूत्रके अनुसार ) परीषहजय करता है। - २. सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहार विशुद्धि इन तीन संयमोमेसे किसी एकमे समस्त परीषहें सम्भव हैं ॥१२॥
इस तरह यह वर्णन किया कि किस गुरणस्थानमे कितनी परीषह जय होती हैं । अब किस किस कर्मके उदयसे कौन कौन परोषह होती है सो बतलाते हैं
ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाली परीषह
ज्ञानावरणे प्रज्ञाऽज्ञाने ॥१३॥ अर्थ- ज्ञानावरणे ] ज्ञानावरणीयके उदयसे [प्रज्ञाञ्ज्ञाने ] प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परीषहें होती हैं।
टीका प्रज्ञा आत्माका गुण है, वह परीषहका कारण नहीं होता; किन्तु ज्ञानका विकास हो और उसके मदजनित परीषह हो तो उस समय ज्ञानावरण कर्मका उदय होता है। यदि ज्ञानी जीव मोहनीय कर्मके उदयमे लगे जुड़े तो उसके. अनित्य मद आ जाता है, किन्तु ज्ञानी जीव पुरुषार्थ पूर्वक जितने अंशमे उसमें युक्त न हो उतने अंशमे उनके परीषह जय होता
( देखो सूत्र ८) दर्शनमोहनीय तथा अन्तराय कर्मके उदयसे होनेवाली परीषह .', दर्शनमोहांतराययोरदर्शनाऽलाभौ ॥१४॥ .. -अर्थ-[दर्शनमोहतिराययोः ] दर्शनमोह और अन्तराय कर्मके उदयसे [प्रदर्शनालाभौ ] क्रमसे अदर्शन और अलाभ परीषह होती हैं।
८८