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अध्याय १० उपसंहार
भावान्न भावस्य कर्मबन्धन संततेः ।
अन्ताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्तबीजवत् ॥ ६ ॥
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भावार्थ - जिस वस्तुकी उत्पत्तिका आद्य समय न हो वह अनादि कहा जाता है, जो अनादि हो उसका कभी अंत नही होता । यदि श्रनादि पदार्थका अंत हो जाय तो सत्का विनाश मानना पडेगा; परन्तु सत्का विनाश होना यह सिद्धान्त और युक्तिसे विरुद्ध है ।
इस सिद्धान्तसे, इस प्रकरणमे ऐसी शंका उपस्थित हो सकती है कि- तो फिर अनादि कर्मबन्धनकी संततिका नाश कैसे हो सकता है ? क्योंकि कर्मबन्धनका कोई आद्य समय नही है इससे वह अनादि है, और जो अनादि हो उसका अंत भी नही होना चाहिए, कर्मबन्धन जीवके साथ अनादि से चला आया है अतः अनन्तकाल तक सदा उसके साथ रहना चाहिए - फलतः कर्मबन्धनसे जीव कभी मुक्त नही हो सकेगा ।
यह शंकाके दो रूप हो जाते हैं- (१) जीवके कर्मबन्धन कभी नही छूटना चाहिए, और ( २ ) कर्मत्वरूप जो पुद्गल है उनमें कर्मत्व सदा चलता ही रहना चाहिए; क्योकि कर्मत्व भी एक जाति है और वह सामान्य होनेसे ध्रुव है । इसलिए उसकी चाहे जितनी पर्यायें बदलती रहे तो भी वे सभी कर्मरूप ही रहनी चाहिए । सिद्धान्त है कि "जो द्रव्य जिस स्त्रभावका हो वह उसी स्वभावका हमेशा रहता है" । जोव अपने चैतन्य स्वभावको कभी छोड़ता नही है और पुद्गल भी अपने रस रूपादिक स्वभावको कभी छोड़ते नही हैं इसीप्रकार अन्य द्रव्य भी अपने अपने स्वभावको छोड़ते नहीं हैं फिर कर्म ही अपने कर्मत्व स्वभावको कैसे छोड़ दे ?
उपरोक्त शंकाका समाधान इसप्रकार है— जीवके साथ कर्मका संबंध संतति प्रवाहकी अपेक्षा अनादिसे है किन्तु कोई एकके एक हो परमाणुका संबंध श्रनादिसे नहीं है, जीवके साथ प्रत्येक परमाणुका संबंध नियत कालतक ही रहता है । कर्मपिंडरूप परिणत परमाणुओंका जीवके साथ संबंध होने का भी काल भिन्न २ है और उनके छूटने का भी काल
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