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मोक्षशास्त्र ७७० नियत और भिन्न २ है । इतना सत्य है कि, जीवको विकारी अवस्थामें कर्मका संयोग चलता ही रहता है । संसारी जीव अपनी स्वयंको भूलसे विकारी अवस्था अनादिसे करता चला आ रहा है अतः कर्मका सम्बन्ध भी संतति प्रवाहरूप अनादिसे इसको है क्योंकि विकार कोई नियतकालसे प्रारम्भ नहीं हुआ है अतः कर्मका सम्बन्ध भी कोई नियत कालसे प्रारम्म नहीं हुआ है इसप्रकार जीवके साथ कर्मका सम्बन्ध सन्ततिप्रवाहसे अनादि का कहा जाता है, लेकिन कोई एक ही कर्म अनादिकालसे जीवको साथ लगा हुआ चला आया हो-ऐसा उसका अर्थ नही है।
जिसप्रकार कर्मकी उत्पत्ति है उसीप्रकार उनका नाश भी होता है, क्योंकि-"जिसका संयोग हो उसका वियोग अवश्य होता ही है" ऐसा सिद्धान्त है । पूर्व कर्मके वियोगके समय यदि जीव स्वरूपमें सम्यक प्रकार जागृतिके द्वारा विकारको उत्पन्न नहीं होने देवे तो नवीन कर्मोका बन्द नही होवे इसप्रकार अनादि कर्म बन्धनका सन्ततिरूप प्रवाह निर्मूल नष्ट हो सकता है उसका उदाहरण-जैसे बीज और वृक्षका सम्बन्ध संतति प्रवाहरूपसे अनादिका है, कोई भी बीज पूर्वके वृक्ष विना नहीं होता। बीजका उपादानकारण पूर्व वृक्ष और पूर्ववृक्षका उपादान पूर्वबीज, इसप्रकार बीज-वृक्षको संतति अनादिसे होनेपर भी उस संततिका अन्त करनेके लिए अंतिम बीजको पीस डालें या जलादें तो उनका संततिप्रवाह नष्ट हो जाता है । उसीप्रकार कर्मोंकी संतति अनादि होनेपर भी कर्मनाशके प्रयोग द्वारा समस्त कर्मोका नाश कर दिया जाय तो उनकी संतति निःशेष नष्ट हो जाती है। पूर्वोपाजित कर्मोके नाशका और नये कर्मोको उत्पत्ति न होने देने का उपाय संवर-निर्जराके नवमें अध्यायमें बताया है। इसप्रकार कर्मोंका: सम्बन्ध जीवसे कभी नही छूट सकता, ऐसी शंका दूर होती है।
शंकाका दूसरा प्रकार यह है कि कोई भी द्रव्य अपने स्वभावको छोड़ता नहीं है तो कर्मरूप पदार्थ भी कर्मत्वको कैसे छोड़ें ? उसका. समाधान यह है कि-कर्म कोई द्रव्य नहीं है परन्तु वह तो संयोगरूप पर्याय है। जिस द्रव्यमें कर्मत्वरूप पर्याय होती है वह द्रव्य तो पुल द्रव्य है और