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________________ अध्याय १० उपसंहार ७७१ पुद्गल द्रव्यका तो कभी नाश होता नहीं है और वह अपने वर्णादि स्वभावको भी कभी छोडता नहीं है । पुद्गल द्रव्योंमें उनकी योग्यतानुसार शरीरादि तथा जल, अग्नि, मिट्टी, पत्थर वगैरह कार्यरूप अनेक अवस्थाएँ होती रहती हैं, और उनकी मर्यादा पूर्ण होनेपर वे विनाशको भी प्राप्त होती रहती है; उसीप्रकार कोई पुद्गल जीवके साथ एक क्षेत्रअवगाह संबंधरूप बन्धन अवस्था होनेरूप सामर्थ्य-तथा रागी जीवको रागादि होनेमे निमित्तपनेरूप होनेकी सामर्थ्यसहित जीवके साथ रहते हैं वहाँ तक उनको 'कर्म' कहते हैं, कर्म कोई द्रव्य नही है वह तो पुद्गलद्रव्यको पर्याय है पर्यायका स्वभाव ही पलटना है इसलिये कर्मरूप पर्यायका अभाव होकर अन्य पर्यायरूप होता रहता है। पुद्गल द्रव्यको कर्म पर्याय नष्ट होकर दूसरी जो पर्याय हो, वह कर्मरूप भी हो सकती है और अन्यरूप भी हो सकती है। कोई द्रव्यके उत्तरोत्तर कालमै भी उस द्रव्यकी एक समान ही योग्यता होती रहे तो उसकी पर्याय एक समान ही होती रहेगी, और यदि उसकी योग्यता बदलती रहे तो उसकी पर्याय अनेक प्रकार-भिन्न-भिन्न जातिकी होती रहेगी, जैसे मिट्टीमें जिससमय घटरूप होनेको योग्यता हो तब वह मिट्टो घटरूप परिणमती है और फिर वही मिट्टी पूर्व अवस्था बदलकर दूसरी बार भी घट हो सकती है । अथवा अपनी योग्यतानुसार कोई अन्य पर्यायरूप (-अवस्था ) भी हो सकती है। इसीप्रकार कर्मरूप पर्यायमें भी समझना चाहिये । जो 'कर्म' कोई अलग द्रव्य ही हो तो उनका अन्यरूप (-अकर्मरूप ) होना नहीं बन सकता, परन्तु 'कर्म' पर्याय होने से वह जीवसे छूट सकते हैं और कर्मपना छोड़कर अन्यरूप (-अकर्मरूप) हो सकते हैं। ३. इसप्रकार, पुद्गल जीवसे कर्मरूप अवस्थाको छोड़कर अकर्मरूप घट पटादिरूप हो सकते है ये सिद्ध हुआ। परन्तु जीवसे कुछ कर्मोका अकर्मरूप हो जाने मात्रसे ही जीव कर्मरहित नही हो जाता, क्योंकि जैसे कुछ कर्मरूप पुद्गल कर्मत्वको छोड़कर अकर्मरूप हो जाते हैं वैसे ही अकर्मरूप अवस्थावाले पुद्गल जिनमें कर्मरूप होनेकी योग्यता हो, वह
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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