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अध्याय २ सूत्र १५-१६-१७
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उपस्थित होते हैं, निमित्तकी राह नहीं देखनी पडती । ऐसा निमित्त नैमितिक संबंध है । 'इंद्रियां है इसलिये ज्ञान हुआ है' ऐसा अज्ञानी मानता है, किन्तु ज्ञानी यह मानता है कि ज्ञान स्वतः हुआ है और जड़ इन्द्रियां उस समय संयोगरूप ( उपस्थित ) स्वयं होती ही है ।
[ देखो अध्याय १ सूत्र १४ की टीका ] ॥ १५ ॥ इन्द्रियोंके मूल भेद द्विविधानि ॥ १६ ॥
अर्थ- सब इन्द्रियाँ [ द्विविधानि ] द्रव्येन्द्रिय और भाव इद्रियके भेदसे दो दो प्रकारकी है ।
नोट:-- द्रव्येन्द्रिय सम्बन्धी सूत्र १७ व और भावेन्द्रिय सम्बन्धी १५ वाँ है ॥ १६ ॥ द्रव्येन्द्रियका स्वरूप
निवृत्युपरक द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥
अर्थ - [ निर्वृति उपकरणे ] निर्वृति और उपकरणको [द्रव्येन्द्रियम् ] द्रव्येन्द्रिय कहते है ।
टीका
निर्वृति - पुद्गलविपाकी नामकर्मके उदयसे प्रतिनियत स्थान में होनेवाली इन्द्रियरूप पुद्गलकी रचना विशेषको बाह्य निर्वृति कहते हैं, और उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमारण आत्माके विशुद्ध प्रदेशोंका चक्षु आदि इन्द्रियोके श्राकार जो परिणमन होता है उसे आभ्यन्तर निर्वृति कहते हैं । इसप्रकार निवृतिके दो भेद 1 [देखो अध्याय २ सूत्र ४४ की टीका ] जो आत्मप्रदेश नेत्रादि इन्द्रियाकार होते हैं वह अभ्यन्तर निर्वृति है और उसी श्रात्मप्रदेशके साथ नेत्रादि आकाररूप जो पुद्गल समूह रहते है वह बाह्य निर्वृति हैं, कर्णेन्द्रियके आत्मप्रदेश जवकी नलीके समान और नेत्रेन्द्रियके आत्मप्रदेश मसूरके आकार के होते है मोर पुद्गल इन्द्रियाँ भी उसी प्रकार की होती है ।
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