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अध्याय ५ उपसंहार मनुष्य शरीरके दृष्टांतसे छह द्रव्योंकी सिद्धि
(१-२ ) यह शरीर जो दृष्टिगोचर होता है; यह पुद्गलका बना हुआ है और शरीरमें जीव रहा हुआ है । यद्यपि जीव और पुद्गल एक अाकाशकी जगहमें रहते है तथापि दोनों पृथक् हैं । जीवका स्वभाव जानने का है और पुद्गलका यह शरीर कुछ जानता नहीं । शरीरका कोई भाग कट जाने पर भी जीवका ज्ञान नही कट जाता, जीव पूर्ण ही रहता है, क्योकि शरीर और जीव सदा पृथक् ही हैं। दोनों का स्वरूप पृथक् है और दोनोंका काम पृथक् ही है यह जीव और पुद्गल तो स्पष्ट हैं । (३) जीव और शरीर कहाँ रह रहे हैं ? अमुक ठिकाने, पांच फुट जगहमे, दो फुट जगहमें रह रहे है, अतः 'जगह' कहनेसे आकाश द्रव्य सिद्ध हुआ।
यह ध्यान रहे कि यह जो कहा जाता है कि जीव और शरीर आकाशमें रहे हुये है वहाँ यथार्थमें जीव, शरीर और आकाश तीनों स्वतंत्र पृथक्-पृथक् ही हैं, कोई एक दूसरेके स्वरूपमें नहीं घुस गया। जीव तो ज्ञानत्व स्वरूपसे ही रहा है, रंग, गंध इत्यादि शरीरमें ही है, वे जीव या आकाश आदि किसीमे नही हैं, अाकाशमें वर्ण, गंध इत्यादि नही है तथा ज्ञान भी नही, वह अरूपी-अचेतन है; जीवमें ज्ञान है किन्तु वर्ण गंध इत्यादि नही अर्थात् वह अरूपी-चेतन है। पुद्गलमे वर्ण-गंध इत्यादि हैं किन्तु ज्ञान नही अर्थात् वह रूपी-अचेतन है, इसतरह तीनों द्रव्य एक दूसरेसे भिन्न-स्वतन्त्र हैं। प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र होनेसे कोई दूसरी वस्तु किसी का कुछ कर नहीं सकती, यदि एक पदार्थमें दूसरा पदार्थ कुछ करता हो तो वस्तुको स्वतन्त्र कैसे कहा जायगा ?
(४) जीव, पुद्गल और आकाश निश्चित किये अव कालका निश्चय करते हैं । ऐसा पूछा जाता है कि "तुम्हारी आयु कितनी है ?" ( यहाँ 'तुम्हारी' अर्थात् शरीरके संयोगरूप आयुकी बात समझना) शरीर की उम्र ४०-५० वर्ष प्रादि की कही जाती है और जीव अनादि अनन्त अस्तिरूप से है । यह कहा जाता है कि यह मेरी अपेक्षा पांच वर्ष छोटा है, यह पांच वर्ष वड़ा है, यहाँ शरीरके कदसे छोटे बड़ेपनको वात