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परिशिष्ट ३
७६५ विरुद्ध धर्म स्वभाव है वह कभी दूर नही होता । किन्तु जो दो विरुद्ध धर्म हैं उनमें एकके भाश्रयसे विकल्प टूटता-हटता है और दूसरेके आश्रयसे राग होता है । अर्थात् द्रव्यके प्राश्रयसे विकल्प टूटता है और पर्यायके आश्रयसे राग होता है, इसीसे दो नयोंका विरुद्ध है । अब द्रव्य स्वभावकी मुख्यता और अवस्थाकी-पर्यायकी गौणता करके जब साधक जीव द्रव्य स्वभावकी तरफ झुक गया तब विकल्प दूर होकर स्वभावमे अभेद होने पर ज्ञान प्रमाररा हो गया। अब यदि वह ज्ञान पर्यायको जाने तो भी वहाँ मुख्यता तो सदा द्रव्य स्वभावकी ही रहती है। इसतरह जो निज द्रव्य स्वभावकी मुख्यता करके स्व सन्मुख झुकने पर ज्ञान प्रमाण हुवा वही द्रव्यस्वभावकी मुख्यता साधक दशाकी पूर्णता तक निरन्तर रहा करती है। और जहाँ द्रव्यस्वभावकी ही मुख्यता है वहाँ सम्यग्दर्शनसे पीछे हटना कभी होता ही नहीं; इसीलिये साधक जीवके सतत द्रव्यस्वभावकी मुख्यताके बलसे शुद्धता बढते बढ़ते जब केवलज्ञान हो जाता है तब वस्तुके परस्पर विरुद्ध दोनो धर्मोको ( द्रव्य और पर्यायको ) एक साथ जानता है, किन्तु वहाँ अब एककी मुख्यता और दूसरेकी गौणता करके झुकाव झुकना नही रहा । वहाँ सम्पूर्ण प्रमाणज्ञान हो जाने पर दोनों नयोंका विरोध दूर हो गया ( अर्थात् नय ही दूर हो गया ) तथापि वस्तुमे जो विरुद्ध धर्म स्वभाव है वह तो दूर नहीं होता।