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मोक्षशास्त्र (५) संवर तथा निर्जरा दोनों एक ही समयमें होते हैं, क्योंकि जिस समय शुद्धपर्याय (-शुद्ध परिणति ) प्रगट हो उसी समय नवीन अशुद्धपर्याय ( शुभाशुभ परिणति ) रुकती है सो संवर है और इसी समय आंशिक अशुद्धि दूर हो शुद्धता बढ़े सो निर्जरा है।
(६) इस अध्यायके पहले सूत्रमे संवरकी व्याख्या करनेके वाद दूसरे सूत्र में इसके छह भेद कहे हैं । इन भेदोमे समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र ये पाँच भेद भाववाचक ( अस्तिसूचक ) हैं और छट्ठा भेद गुप्ति है सो अभाववाचक ( नास्तिसूचक ) है। पहले सूत्र में संवरकी व्याख्या नयकी अपेक्षासे निरोधवाचक की है, इसीलिये यह व्याख्या गौणरूपसे यह बतलाती है कि 'सवर होनेसे कैसा भाव हुआ' और मुख्यरूपसे यह बतलाती है कि-'कैसा भाव रुका।'
(७) 'पास्रव निरोधः संवरः' इस सूत्र में निरोध शब्द यद्यपि अभाववाचक है तथापि यह शून्यवाचक नही है; अन्य प्रकारके स्वभावपने का इसमें सामर्थ्य होनेसे, यद्यपि आस्रवका निरोध होता है तथापि आत्मा संवृत स्वभावरूप होता है, यह एक तरहकी आत्माकी शुद्धपर्याय है। संवरसे आस्रवका निरोध होता है इस कारण आस्रव बन्धका कारण होनेसे संवर होनेपर बन्धका भी निरोध होता है । ( देखो श्लोकवार्तिक संस्कृत टीका, इस सूत्रके नीचेकी कारिका २ पृष्ठ ४८६)
(८) श्री समयसारजीकी १८६ वी गाथामें कहा है कि-'शुद्ध आत्माको जानता-अनुभव करनेवाला जीव शुद्ध आत्माको ही प्राप्त होता है और अशुद्ध आत्माको जानने अनुभव करनेवाला जीव अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त होता है।'
__इसमे शुद्ध प्रात्माको प्राप्त होना सो संवर है और अशुद्ध आत्माको प्राप्त होना सो आस्रव-बन्ध है ।
() समयसार नाटकको उत्थानिकामें २३ वें पृष्टमें संवरकी . व्याख्या निम्नप्रकार की है: