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अध्याय ९ भूमिका
६४६ (९) प्रश्न-इस अध्यायके पहले सूत्र में संवरकी व्याख्या 'आस्रव निरोधः संवर.' की है, किन्तु सर्वांग व्याख्या नही की, इसका क्या कारण है?
उत्तर-इस शास्त्रमे वस्तुस्वरूपका वर्णन नयकी अपेक्षासे बहुत ही थोडेमे दिया गया है । पुनश्च इस अध्यायका वर्णन मुख्यरूपसे पर्यायाथिक नयसे होनेसे 'पासव निरोधः संवरः' ऐसी व्याख्या पर्यायकी अपेक्षासे की है और इसमे द्रव्याथिक नयका कथन गौण है।।
(१०) पांचवे अध्यायके ३२ वे सूत्रको टीकामें जैन शास्त्रोंके अर्थ करनेकी पद्धति बतलाई है। इसी पद्धतिके अनुसार इस अध्यायके पहले सूत्रका अर्थ करनेसे श्री समयसार, श्री पंचास्तिकाय आदि शास्त्रोमे संवरका जो अर्थ किया है वही अर्थ यहाँ भी किया है ऐसा समझना।
४-ध्यानमें रखने योग्य बातें (१) पहले अध्यायके चौथे सूत्रमे जो सात तत्त्व कहे हैं उनमें संवर और निर्जरा ये दो तत्त्व मोक्षमार्गरूप है। पहले अध्यायके प्रथम सूत्रमे मोक्षमार्गको व्याख्या 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस तरह की है, यह व्याख्या जीवमे मोक्षमार्ग प्रगट होने पर आत्माकी शुद्ध पर्याय कैसी होती है यह बतलाती है। और इस अध्यायके पहले सूत्र में 'पासव निरोधः सवरः' ऐसा कहकर मोक्षमार्गरूप शुद्ध पर्याय होनेसे यह वतलाया है कि शुद्ध पर्याय होनेसे अशुद्ध पर्याय तथा नवीन कर्म रुकते है।
(२) इस तरह इन दोनो सूत्रोमे ( अध्याय १ सूत्र १ तथा अध्याय ६ सूत्र १ मे ) वतलाई हुई मोक्षमार्गकी व्याख्या साथ लेनेसे इस शास्त्रमें सर्वांग कथन आ जाता है। श्री समयसार, पंचास्तिकाय आदि शास्त्रोमें मुख्यरूपसे द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे कथन है, इसमे संवरकी जो व्याख्या दी गई है वही व्याख्या पर्यायाथिकनयसे इस शास्त्रमे पृथक् शब्दोमे दी है।
(३) शुद्धोपयोगका अर्थ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होता है ।
(४) सवर होनेसे जो अशुद्धि दूर हुई और शुद्धि बढ़ी वही निर्जरा है इसीलिये 'शुद्धोपयोग' या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र' कहनेसे ही इसमें निर्जरा आ जाती है।
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