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मोक्षशास्त्र (६) श्री पुरुपार्थ सिद्धयुपायकी गाथा २०५ में बारह अनुप्रेक्षाग्रोके नाम कहे है उनमें एक संवर अनुप्रेक्षा है। यहाँ पण्डित उग्रसेन कृत टीका पृष्ठ २१८ में "संवर' का अर्थ निम्न प्रकार किया है
जिन पुण्य पाप नहिं कीना, मातम अनुभव चित टोना; तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुरु अवलोके ।
अर्थ-जिन जीवोंने अपने भावको पुण्य-पापस्प नहीं किया और आत्म अनुभवमें अपने ज्ञानको लगाया है उन जीवोंने माते हुए फर्मोको रोका है और वे संवरकी प्राप्तिरूप सुखको देखते हैं।
( इस व्याख्यामे ऊपर कहे हुए तीनो पहलू आ जाते हैं, इसीलिये अनेकान्तकी अपेक्षासे यह सर्वांग व्याख्या है।
(७) श्री जयसेनाचार्यने पंचास्तिकाय गाथा १४२ की टीका संवरकी व्याख्या निम्न प्रकार की है:
अत्र शुभाशुभसंवर समर्थः शुद्धोपयोगी भाव संवरः, भावसंवराधारेण नवतरकर्मनिरोधो द्रव्यसंवर इति तात्पर्यार्थः॥
अर्थ-यहाँ शुभाशुभभावको रोकने में समर्थ जो शुद्धोपयोग है सो भावसंवर है; भावसंवरके आधारसे नवीन कर्मका निरोध होना सो द्रव्यसंवर है । यह तात्पर्यअर्थ है। (रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला पंचास्तिकाय पृष्ठ २०७)
(संवरकी यह व्याख्या अनेकान्तकी अपेक्षासे है, इसमें पहले तीनों अर्थ आ जाते है।)
(८) श्री अमृतचन्द्राचार्यने पंचास्तिकाय गाथा १४४ की टीकामें संवरकी व्याख्या निम्न प्रकार की है:
'शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः शुद्धोपयोगः अर्थात् शुभाशुभ परिणामके निरोधरूप संवर है सो शुद्धोपयोग है।' (पृष्ठ २०८ )
(संवरकी यह व्याख्या अनेकान्तकी अपेक्षासे है, इसमें पहले दोनों अर्थ आ जाते हैं।)