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________________ अध्याय ९ उपसंहार ६४७ नय कथन है । सर्वांग व्याख्या रूप कथन किसी पहलूको गौण न रख सभी पहलुओंको एक साथ बतलाता है। शास्त्रमे नयदृष्टिसे व्याख्या की हो या प्रमाण दृष्टिसे व्याख्या की हो किन्तु वहाँ सम्यक् अनेकान्तके स्वरूपको समझकर अनेकान्त स्वरूपसे जो व्याख्या हो उसके अनुसार समझना। (४) संवरकी सर्वांग व्याख्या श्री समयसारजी गाथा १८७ से १८९ तक निम्न प्रकार दी गई है: "मात्माको आत्माके द्वारा दो पुण्य-पापरूप शुभाशुभ योगोंसे रोककर दर्शनज्ञानमे स्थित होता हुवा और अन्य वस्तुकी इच्छासे विरक्त (-निवृत्त ) हुआ जो आत्मा, सर्व सगसे रहित होता हुआ निजात्माको आत्माके द्वारा ध्याता है, कर्म और नोकर्मको नही ध्याता । चेतयिता होने से एकत्वका ही चितवन करता है, विचारता है-अनुभव करता है। यह आत्मा, आत्माका ध्याता, दर्शनज्ञानमय और अनन्यमय हुवा संता अल्पकाल मे ही कर्मसे रहित आत्माको प्राप्त करता है।" इस व्याख्या में सम्पूर्ण कथन है अतः यह कथन अनेकान्तदृष्टिसे है। इसलिये किसी शास्त्रमे नयकी अपेक्षासे व्याख्या की हो या किसी शास्त्र में अनेकान्तकी अपेक्षासे सर्वाग व्याख्या की हो तो वहाँ विरोध न समझकर ऐसा समझना कि दोनोमें समान रूपसे व्याख्या की है। (५) श्री समयसार कलश १२५ में संवरका स्वरूप निम्न प्रकार कहा है: १-आस्रवका तिरस्कार करनेसे जिसको सदा विजय मिली है ऐसे संवरको उत्पन्न करनेवाली ज्योति । २-पररूपसे भिन्न अपने सम्यक् स्वरूप में निचलरूपसे प्रकाशमान, चिन्मय, उज्ज्वल और निजरसके भारवाली ज्योतिका प्रगट होना। (इस वर्णनमें आत्माकी शुद्ध पर्याय और प्रास्रवका निरोध इस तरह आत्माके दोनों पहलू श्वाजाते हैं ।)
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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