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अध्याय ५ उपसंहार
४७७ गुण पर्यायोंका प्रयोजनभूत कार्य करता है। एक द्रव्य किसी प्रकार किसी दूसरे का कार्य नहीं करता और न कर सकता।
३-द्रव्यत्वगुणके कारण द्रव्य निरन्तर एक अवस्थामें से दूसरी अवस्थामें द्रवा करता है-परिणमन किया करता है । द्रव्यं त्रिकाल अस्ति रूप है तथापि वह सदा एक सदृश (कूटस्थं) नही है; परन्तु निरन्तर नित्य बदलनेवाला-परिणामी है। यदि द्रव्यमे परिणमन न हो तो जीवके संसार दशाका नाश होकर मोक्षदशाकी उत्पत्ति कैसे हो? शरीरको बाल्यदशामें से युवकदशा कैसे हो? छहों द्रव्योंमें द्रव्यत्व शक्ति होनेसे सभी स्वतत्ररूपसे अपनी अपनी पर्यायमें परिणम रहे हैं। कोई द्रव्य अपनी पर्याय परिणमानेके लिये दूसरे द्रव्यकी सहायता या अपेक्षा नहीं रखता।।
४-प्रमेयत्वगुणके कारण द्रव्य ज्ञानमें ज्ञात होते हैं। छहों द्रव्यों में इस प्रमेयशक्तिके होनेसे-ज्ञान छहों द्रव्यके स्वरूपका निर्णय कर सकता "है। यदि वस्तुमें प्रमेयत्व गुण न हो तो वह स्वयको किस तरह बतला सकता है कि 'यह वस्तु है'। जगतका कोई पदार्थ ज्ञान प्रगोचर नही है, पास्मामें प्रमेयत्व गुण होनेसे प्रात्मा स्वय निजको जान सकता है।
५-अगुरुलघुत्व गुणके कारण प्रत्येक वस्तु निज२ स्वरूपसे ही कायम रहती है । जीव बदलकर कभी परमाणुरूप नही हो जाता, परमाणु बदलकर कभी जीवरूप नहीं हो जाता, जड़ सदा जड़रूपसे और चेतन सदा चेतनरूपसे ही रहताहै जानका विकास विकार दशामें चाहे जितना स्वल्प हो तथापि जीवद्रव्य बिलकुल ज्ञान शून्य हो जाय ऐसा कभी नहीं होता। इस शक्तिक कारणे द्रव्यके एक गुरण दूसरे गुणरूपन परिणम तथा एक द्रव्यके अनेक या-अनन्त गुण अलग अलग नहीं हो जाते, ती कोई दो पदार्थ एक रूप' होकर तीसरी नई तरहका पदार्थ उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वस्तुका स्वरूप अन्ययो कदापि नहीं होता।
६-प्रदेशत्व गुणके कारण प्रत्येक द्रव्यके अपना अपना प्राकार अवश्य होती हैं। प्रत्येक अपने अपने स्वाकारमें ही रहता है । "सिददशी होने पर एक जीव दूसरे जीवमे नहीं मिल जाता किन्तु प्रत्येक जीव अपने प्रदेशाकारमें स्वतंत्र रूपसे कायम रहता है।