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मोक्षशास्त्र
श्रुतज्ञानका वास्तविक लक्षण - अनेकांत
एक वस्तुमे 'है' और 'नही' ऐसी परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों को भिन्न २ अपेक्षा से प्रकाशित करके जो वस्तुस्वरूपको परसे भिन्न बताये सो श्रुतज्ञान है; आत्मा सर्वं परद्रव्योसे भिन्न वस्तु है ऐसा पहिले श्रुतज्ञानसे निश्चित करना चाहिये ।
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अनंत परवस्तुसे यह ग्रात्मा भिन्न है, यह सिद्ध होने पर अब अपने द्रव्य-पर्यायमे देखना है । मेरा त्रैकालिक द्रव्य एक समयमात्रकी अवस्थारूप नहीं है; अर्थात् विकार क्षणिक पर्यायरूपसे है और त्रैकालिक स्वरूपसे विकार नही है - इसप्रकार विकार रहित स्वभावकी सिद्धि भो अनेकांतके द्वारा ही होती है । भगवान्के द्वारा कहे गये शास्त्रोंकी महत्ता अनेकांतसे ही है | भगवानने पर जीवोंकी दया पालने को कहा है या श्रहिंसा बतलाई है अथवा कर्मो का वर्णन किया है, - इसप्रकार मानना न तो भगवानको पहिचाननेका वास्तविक लक्षण है और न भगवानके द्वारा कहे गये शास्त्रोंको ही पहिचाननेका ।
भगवान भी दूसरेका कुछ नहीं कर सके
भगवानने अपना कार्य भली भांति किया किन्तु वे दूसरोंका कुछ नहीं कर सके; क्योंकि एक तत्त्व स्वापेक्षासे है और परापेक्षासे नही है, इसलिये कोई किसीका कुछ नही कर सकता । प्रत्येक द्रव्य पृथक् पृथक् स्वतन्त्र है, कोई किसीका कुछ नही कर सकता । इसप्रकार समझ लेना हो भगवानके द्वारा कहे गये शास्त्रोंकी पहिचान है, और वही श्र तज्ञान है । प्रभावनाका सच्चा स्वरूप
कोई जीव पर द्रव्यकी प्रभावना नहीं कर सकता, किंतु जैनधर्मं जो कि श्रात्माका वीतराग स्वभाव है उसको प्रभावना धर्मी जीव करते हैं । आत्माको जाने विना श्रात्म स्वभावकी वृद्धिरूप प्रभावना कैसे की जा सकती है ? प्रभावना करनेका जो विकल्प उठता है सो भी परके काररणसे नहीं । दूसरेके लिये कुछ भी अपनेमे होता है यह कहना जैन शासनको मर्यादामें नही है | जैन शासन तो वस्तुको स्वतन्त्र, स्वाधीन और परिपूर्ण स्थापित करता है ।