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अध्याय १ परिशिष्ट ३
१६७ भगवानके द्वारा कथित सच्ची दया (अहिंसा) का स्वरूप
यह बात मिथ्या है कि भगवानने दूसरे जीवोकी दया स्थापित की है । जव कि यह जीव पर जीवोंकी क्रिया कर ही नही सकता तब फिर उसे वचा सकने की बात भगवान कैसे कहे ? भगवानने तो आत्माके स्वभावको पहिचान कर ज्ञातामात्र भावकी श्रद्धा और एकाग्रता द्वारा कषायभावसे अपने आत्माको बचानेकी बात कही है; और यही सच्ची दया है। अपने प्रात्मा का निर्णय किए बिना जीव क्या कर सकता है ? भगवानके श्रु तज्ञानमे तो यह कहा है कि-तू स्वतः परिपूर्ण वस्तु है, प्रत्येक तत्त्व, स्वतः स्वतंत्र है किसी तत्त्वको दूसरे तत्त्वका आश्रय नहीं है, इसप्रकार वस्तु स्वरूपको पृथक् स्वतंत्र जानना सो अहिंसा है और वस्तुको पराधीन मानना कि एक दूसरेका कुछ कर सकता है तथा रागसे धर्म मानना सो हिंसा है। सरागीको दूसरे जीवको बचानेका राग तो होता है किन्तु उस शुभ रागसे पुण्य बंधन होता है-धर्म नही होता है ऐसा समझना चाहिये ।
आनन्दको प्रगट करनेवाली भावनावाला क्या करे ?
जगतके जीवोंको सुख चाहिये है और सुखका दूसरा नाम धर्म है। धर्म करना है अर्थात् प्रात्म शांति चाहिए है अथवा अच्छा करना है । और वह अच्छा कहाँ करना है ? आत्माकी अवस्थामें दुःखका नाश करके वीतरागी आनन्द प्रगट करना है । वह आनन्द ऐसा चाहिए कि जो स्वाधीन हो-जिसके लिये परका अवलम्बन न हो । ऐसा आनन्द प्रगट करनेकी जिस की यथार्थ भावना हो सो वह जिज्ञासु कहलाता है । अपना पूर्णानन्द प्रगट करने की भावना वाला जिज्ञासु पहिले यह देखता है कि ऐसा पूर्णानद किसे प्रगट हुआ है ? अपनेको अभी ऐसा आनन्द प्रगट नहीं हुआ है किंतु अपनेको जिसकी चाह है ऐसा आनन्द अन्य किसीको प्रगट हुआ है और जिन्हे वह आनन्द प्रगट हुआ है उनके निमित्तसे स्वयं उस आनन्दको प्रगट करनेका सच्चा मार्ग जानले । और ऐसा जान ले सो उसमे सच्चे निमित्तोंकी पहिचान भी आ गई । जब तक इतना करता है तब तक वह जिज्ञासु है।