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मोक्षशास्त्र
[ सम्यग्हृष्टेः प्रतिचाराः ] सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं ।
टीका
१.
- जिस जीवका सम्यग्दर्शन निर्दोष हो वह बराबर व्रत पाल सकता है इसीलिये यहाँ पहले सम्यग्दर्शनके प्रतिचार बतलाये गये है, जिससे वह अतिचार दूर किया जा सकता है । श्रपशमिक सम्यक्त्व ओर क्षायिक सम्यक्त्व तो निर्मल होते हैं, इनमें अतिचार नहीं होते । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चल, मल और प्रगाढ़ दोष सहिन होता है अर्थात् इसमें अतिचार लगता है ।
२- सम्यग्दृष्टि आठ गुण ( अंग, लक्षण अर्थात् प्रचार ) होते हैं उनके नाम इसप्रकार हैं-निःशंका, निकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण वात्सल्य और प्रभावना ।
३- सम्यग्दर्शनके जो पांच प्रतिचार कहे हैं उनमें से पहले तीनतो निःशंकितादि पहले तीन गुणोमें आनेवाले दोष हैं और बाकी के दोअतिचारों का समावेश अतिम पांच गुणोंके दोष में होता है । चौथे से सातवें गुरणस्थान वाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ये अतिचार होते हैं अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनवाले मुनि, श्रावक या सम्यग्दृष्टि-इन तीनोंके ये अतिचार हो सकते हैं । जो अशरूपसे भंग हो ( अर्थात् दोष लगे ) उसे प्रतीचार कहते हैं, और उससे सम्यग्दर्शन निर्मूल नही होता, मात्र मलिन होता है ।
४— शुद्धात्म स्वभावकी प्रतीतिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन के सद्भाव में सम्यग्दर्शन सम्बन्धी व्यवहार दोष होते हैं तथापि वहां मिथ्यात्व-प्रकृतियों का वंध नही होता । पुनश्च दूसरे गुणस्थानमें भी सम्यग्दर्शनसंबन्धी व्यवहार दोष होते हैं तथापि वहाँ भी मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्धन नही है । ५- सम्यग्दर्शन धर्मरूपी वृक्षकी जड़ है, मोक्षमहलकी पहली सीढ़ी है; इसके विना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पनेको प्राप्त नही होते । अतः योग्य जीवोको यह उचित है कि जैसे भी बने वैसे आत्माके वास्तविक स्वरूपको समझकर सम्यग्दर्शनरूपो रत्नसे अपनी आत्माको भूषित करे और
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