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अध्याय ७ सूत्र २२३२
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अर्थ- व्रतधारी श्रावक [ मारणांतिक ] मरणके समय होनेवाली [ सल्लेखनां ] सल्लेखनाको [ जोषिता ] प्रीतिपूर्वक सेवन करे । टीका
१- इस लोक या परलोक सम्बन्धी किसी भी प्रयोजनकी अपेक्षा किये बिना शरीर और कषायको सम्यक् प्रकार कृश करना सो सल्लेखना है । २. प्रश्न - शरीर तो परवस्तु है, जीव उसे कृश नही कर सकता, तथापि यहाँ शरीरको कृश करनेके लिये क्यों कहा ?
उत्तर--- - कषायको कृश करने पर शरीर उसके अपने कारणसे कृश होने योग्य हो तो कृश होता है ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बताने के लिये उपचारसे ऐसा कहा है । वात, पित्त, कफ इत्यादिके प्रकोपसे मरणके समय परिणाममें आकुलता न करना और स्वसन्मुख आराधनासे चलायमान-न होना ही यथार्थं काय सल्लेखना है; मोहरागद्वेषादिसे मरणके समय अपने सम्यग्दर्शन - ज्ञान परिणाम मलिन न होने देना सो कषाय सल्लेखना है । ३. प्रश्न --- समाधिपूर्वक देहका त्याग होनेमे आत्मघात है या नही ?
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उत्तर-राग-द्वेष- मोहसे लिप्त हुये जीव यदि जहर, शस्त्र प्रादिसे घात करे सो आत्मघात है किंतु यदि समाधिपूर्वक सल्लेखना मरण करे तो उसमें रागादिक नही और आराधना है इसीलिये उसके आत्मघात नही है । प्रमत्तयोग रहित और आत्मज्ञान सहित जो जीव-यह जानकर कि 'शरीर अवश्य विनाशीक है' उसके प्रति राग कम करता है उसे हिंसा नही ॥२२॥ सम्यग्दर्शनके पांच अतिचार
शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥ २३ ॥
अर्थ- [ शंकाकांक्षा विचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः ] शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिकी प्रशंसा और अन्यहष्टिका संस्तव ये पांच