________________
५८८
मोक्षशास्त्र
रहकर, सम्पूर्ण सावद्ययोगको छोड़, सर्व इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर धर्म ध्यान में रहना सो प्रोपधोपवास है ।
उपभोगपरिभोगपरिमाणत्रतश्रावकों को भोगके निमित्तसे हिंसा होती है । भोग श्रीर उपभोगकी वस्तुओंका परिमारण करके ( मर्यादा बांध कर अपनी शक्तिके अनुसार भोग उपभोगको छोड़ना सो उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत है |
अतिथिसंविभागवत - अतिथि अर्थात् मुनि आदिके लिये ग्राहार, कमंडलु, पीछी, वसतिका ग्रादिका दान देना सो अतिथिसंविभागवत है । - ये चार शिक्षाव्रत हैं ।
३. ध्यान में रखने योग्य सिद्धान्त
अनर्थदण्डनामक आठवें व्रतमें दुःश्रुतिका त्याग कहा है वह यह बतलाता है कि- जीवोंको दुःश्रुतिरूप शास्त्र कोन है और सुश्रुतिरूप शास्त्र कौन है इस बातका विवेक करना चाहिये । जिस जीवके धर्मके निमित्तरूपसे दुःश्रुति हो उसके सम्यग्दर्शन प्रगट ही नही होता और जिसके घर्मके निमित्त सुश्रुति ( सत् शास्त्र) हो उसको भी इसका मर्म जानना चाहिये । यदि उसका मर्म समझे तो ही सम्यग्दर्शन प्रगट कर सकता है और यदि सम्यग्दर्शन प्रगट करले तो ही श्रणुव्रतधारी श्रावक या महाव्रतधारी मुनि हो सकता है । जो जीव सुशास्त्रका मर्म जानता है वही जीव इस अध्यायके पाँचवें सूत्रमें कही गई सत्यव्रत संबंधी अनुवीचिभाषरण अर्थात् शास्त्रकी आज्ञानुसार निर्दोष वचन बोलनेकी भावना कर सकता है । प्रत्येक मनुष्य सुशास्त्र और कुशास्त्रका विवेक करनेके लिये योग्य है इसलिये मुमुक्षु जीवों को तत्त्व विचारकी योग्यता प्रगट करके वह विवेक अवश्य करना चाहिये । यदि जीव सत् असत्का विवेक न समझे- -न करे तो वह सच्चा व्रतधारी नहीं हो सकेगा ॥२१॥
व्रतीको सल्लेखना धारण करनेका उपदेश मारणांतिकीं सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥