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मोक्षशास्त्र
( ४ ) प्रत्येक द्रव्य अनंत गुरणोंका पिण्ड है । द्रव्यकी नित्यतासें उसका प्रत्येक गुण नित्य रहता है पुनरपि एक गुरण उसी गुणरूप रहता है, दूसरे गुणरूप नही होता । इस तरह प्रत्येक गुरणका अवस्थितत्त्व है; यदि ऐसा न हो तो गुरणका नाश हो जायगा, और गुणके नाश होनेसे सम्पूर्ण द्रव्यका नाश हो जायगा और ऐसा होने पर द्रव्यका 'नित्यत्व' नही रहेगा ।
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( ५ ) जो द्रव्य अनेक प्रदेशी हैं उसका भी प्रत्येक प्रदेश नित्य और अवस्थित रहता है। उनमेसे एक भी प्रदेश अन्य प्रदेशरूप नही होता । यदि एक प्रदेशका स्थान अन्य प्रदेशरूप हो तो प्रदेशोंका अवस्थितपन न रहे । यदि एक प्रदेशका नाश हो तो सम्पूर्ण द्रव्यका नाश हो श्रीर ऐसा हो तो उसका नित्यत्त्व न रहे ।
( ६ ) प्रत्येक द्रव्यकी पर्याय अपने-अपने समय पर प्रगट होती है और फिर तत्पश्चात् अपने अपने समय पर बादकी पर्यायें प्रगट होती हैं, और पहले पहलेकी पर्याय प्रगट नहीं होती, इस तरह पर्यायका अवस्थितपन सिद्ध होता है । यदि पर्याय अपने-अपने समय पर प्रगट न हो और दूसरी पर्यायके समय प्रगट हो तो पर्यायका प्रवाह अवस्थित न रहे और ऐसा होनेसे द्रव्यका अवस्थितपन भी न रहे ।
एक पुद्गल द्रव्यका ही रूपित्त्व बतलाते हैं रूपिणः पुद्गलाः ॥ ५ ॥
श्रर्थः-- [पुद्गलाः ] पुद्गल द्रव्य [रूपिणः ] रूपी अर्थात् मूर्तिक हैं । टीका
(१) 'रूपी' का अर्थ स्पर्श, रस, गंध और वर्ण सहित है । (देखो सूत्र २३ ) पुद्गल ये दो पद मिलकर पुद्गल शब्द बना है । पुद् अर्थात् इकट्ठे होना - मिल जाना और गल अर्थात् बिछुड़ जाना । स्पर्श गुणकी पर्याय की विचित्रताके कारण मिलना और बिछुड़ना पुद्गलमें ही होता है इसीलिए जब उसमें स्थूलता आती है तब पुद्गल द्रव्य इन्द्रियोंका विषय बनता