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मोक्षशास्त्र
है इसलिये निश्चय नयसे वह जीव की अवस्था नहीं है । यह निश्चय नयसे जीवका स्वरूप नहीं है इसलिये पोद्गलिक है । यदि वह जीवका त्रिकाली स्वभाव हो तो वह दूर न हो, किन्तु वह भाववचनरूप अवस्था जीवमेंसे दूर हो सकती है— अलग हो सकती है - इसी अपेक्षाको लक्ष्यमें रखकर उसे पौद्गलिक कहा जाता है ।
(५) भावमन सम्बन्धी अध्याय २ सूत्र ११ की टीका पढे । वहाँ जीवकी विशुद्धिको भावमन कहा है सो वह अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टि से कहा है ऐसा समझना ।
अब पुद्गलका जीवकी साथका निमित्त नैमित्तिक संबन्ध बताते हैं सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥
श्रर्थ - [ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ] इंद्रियजन्य सुख दु:ख, जीवन, मरण ये भी पुद्गलके उपकार हैं ।
टीका
(१) उपकार ( - उपग्रह ) शब्दका श्रर्थं किसी का भला करना नहीं किन्तु निमित्त मात्र ही समझना चाहिये; नहीं तो यह नही कहा जा सकता कि "जीवों को दुःख मरणादिके उपकार" पुद्गल द्रव्यके हैं ।
(२) सूत्रमें 'च' शब्दका प्रयोग यह बतलाता है कि जैसे शरीरादिक निमित्त हैं वैसे ही पुद्गल कृत इंद्रियाँ भी जीवको अन्य उपकाररूप से हैं ।
(३) सुख दुःखका संवेदन जीवको है, पुद्गल अचेतन-जड़ है, उसे सुख दुखका संवेदन नहीं हो सकता ।
(४) निमित्त उपादानका कुछ कर नही सकता । निमित्त अपने में पूरा पूरा कार्य करता है और उपादान अपने में पूरा पूरा कार्य करता है । यह मानना कि निमित्त पर द्रव्यका वास्तवमें कुछ असर प्रभाव करता है सो दो द्रव्यों को एक माननेरूप असत् निर्णय है ।
(५) प्रश्न - निमित्त उपादानका कुछ भी कर नहीं सकता तो सूई