________________
अध्याय १ सूत्र २६
टीका
केवलज्ञान = असहाय ज्ञान, अर्थात् यह ज्ञान इन्द्रिय, मन या आलोक की अपेक्षासे रहित है । वह त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंको प्राप्त अनन्त वस्तुको जानता है । वह असंकुचित, प्रतिपक्षी रहित और अमर्यादित है ।
&&
शंका - जिस पदार्थका नाश हो चुका है और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नही हुआ उसे केवलज्ञान कैसे जान सकता है ?
समाधान -- केवलज्ञान निरपेक्ष होनेसे बाह्य पदार्थोकी अपेक्षा के बिना ही नष्ट और अनुत्पन्न पदार्थोंको जाने तो इसमे कोई विरोध नहीं आता । केवलज्ञानको विपर्ययज्ञानत्वका भी प्रसग नही आता, क्योंकि वह यथार्थ स्वरूपसे पदार्थोको जानता है । यद्यपि नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओका वर्तमानमे सद्भाव नही है तथापि उनका अत्यन्ताभाव भी नही है ।
केवलज्ञान सर्व द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती अनंतानंत पर्यायोंको अक्रमसे एक ही कालमे जानता है; वह ज्ञान सहज ( बिना इच्छा के ) जानता है । केवलज्ञानमे ऐसी शक्ति है कि अनन्तानन्त लोक- अलोक हो तो भी उन्हे जाननेमे केवलज्ञान समर्थ है ।
विशेष स्पष्टता के लिये देखो अध्याय १ परिशिष्ट ५ जो बड़े महत्वपूर्ण हैं । शंका- केवली भगवानके एक ही ज्ञान होता है या पाँचों ?
समाधान- पाँचो ज्ञानोका एक ही साथ रहना नही माना जा सकता, क्योकि मतिज्ञानादि आवरणीयज्ञान हैं, केवलज्ञानी भगवान क्षीण श्रवरणीय है इसलिये भगवानके आवरणीय ज्ञानका होना संभव नही है; क्योकि आवरणके निमित्तसे होनेवाले ज्ञानोका (आवरणोका अभाव होनेके बाद ) रहना हो सकता, ऐसा मानना न्याय विरुद्ध है, [ श्री धवला पु० ६ पृष्ठ २६-३० ]
मति आदि ज्ञानोंका आवरण केवलज्ञानावरणके नाश होनेके साथ ही सम्पूर्ण नष्ट हो जाता है । [ देखो सूत्र ३० की टीका ]
एक ही साथ सर्वथा जाननेकी एक एक जीवमे सामर्थ्य है ।