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________________ १४२ मोक्षशास्त्र स्थिरता कुछ समय ही रहती है । और राग होनेसे ज्ञान स्वमेंसे छूटकर परकी ओर जाता है तब भी सम्यग्दर्शन होता है। और यद्यपि ज्ञानका उपयोग दूसरेके जानने में लगा हुआ है तथापि वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, उस समय अनुभूति उपयोगरूप नहीं है फिर भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि लब्धिरूप अनुभूति है। (५) प्रश्न-'सम्यग्दर्शनका एक लक्षण ज्ञानचेतना है' क्या यह ठीक है ? उचर-ज्ञानचेतनाके साथ सम्यग्दर्शन अविनाभावी होता ही है इसलिए वह व्यवहार अथवा बाह्य लक्षण है। (६) प्रश्न-'अनुभूतिका नाम चेतना है' क्या यह ठीक है ? उचर-ज्ञानकी स्थिरता अर्थात् शुद्धोपयोग ( अनुभूति ) को उपयोगरूप ज्ञानचेतना कहा जाता है। (७) प्रश्न-यदि सम्यवत्वका विषय सभीके एकसा है तो फिर सम्यग्दर्शनके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक-ऐसे भेद क्यों किये उत्तर-दर्शन मोहनीय कर्मके अनुभागबन्धकी अपेक्षासे वे भेद नहीं हैं किंतु स्थितिवन्धकी अपेक्षासे हैं। उनके कारणसे उनमे आत्माकी मान्यता मे कोई अंतर नही पड़ता । प्रत्येक प्रकारके सम्यग्दर्शनमे प्रात्माकी मान्यता एक ही प्रकारकी है । आत्माके स्वरूपकी जो मान्यता औपशमिक सम्यक्दर्शनमे होती है वही क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शनमे होती है। केवली भगवानको परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन होता है, उनके भी आत्मस्वरूप की उसी प्रकारकी मान्यता होती है । इस प्रकार सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रात्मस्वरूपको मान्यता एक ही प्रकारकी होती है। [ देखो, पंचाध्यायी अध्याय २ गाथा ६३४-९३८]
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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