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अध्याय १ परिशिष्ट १
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व्यवहाराभासका व्यय ( - प्रभाव ) होकर निश्चयसम्यग्दर्शनका उत्पादसुपात्र जीवको अपने पुरुषार्थसे ही होता है [ व्यवहाराभासको संक्षेपमे व्यवहार कहा जाता है । ]
जहाँ शास्त्रमे व्यवहारसम्यग्दर्शनको निश्चयसम्यग्दर्शनका कारण कहा है वहाँ यह समझना चाहिए कि व्यवहारसम्यग्दर्शनको अभावरूप कारण कहा है । कारणके दो प्रकार है - ( १ ) निश्चय (२) और व्यवहार | निश्चय कारण तो अवस्थारूपसे होनेवाला द्रव्य स्वय है और व्यवहार कारण पूर्वको पर्यायका व्यय होना है ।
(४) प्रश्न- -श्रद्धा, रुचि और प्रतीति श्रादि जितने गुण है वे सब सम्यक्त्व नही किन्तु ज्ञानकी पर्याय है ऐसा पंचाध्यायी अध्याय २ गाथा ३८६-३८७ में कहा है, इसका क्या कारण है ?
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उत्तर- - जब आत्मा जीवादि सात तत्वोंका विचार करता है तब उसके ज्ञानमे रागसे भेद होता है इसलिए वे ज्ञानकी पर्याय हैं और वे सम्यक् नही हैं ऐसा कहा है ।
सात तत्त्व और नव पदार्थोका निर्विकल्पज्ञान निश्चय सम्यग्दर्शन सहितका ज्ञान है । [ देखो पचाध्यायी अध्याय २ श्लोक १८६-१८६ ] श्लोक ३८६ के भावार्थमे कहा है कि- "परन्तु वास्तवमे ज्ञान भी यही है कि जैसेको तैसा जानना और सम्यक्त्व भी यही है कि जैसाका तैसा श्रद्धान करना” |
इससे समझना चाहिये कि रागमिश्रित श्रद्धा ज्ञानकी पर्याय है । राग रहित तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, उसे सम्यक् मान्यता अथवा सम्यक् प्रतीति भी कहते है | गाथा ३८७ में कहा है कि - ज्ञानचेतना सम्यग्दर्शनका लक्षण है, - इसका यह अर्थ है कि अनुभूति स्वयं सम्यग्दर्शन नही है किन्तु जब वह होती है तब सम्यग्दर्शन अविनाभावीरुप होता है इसलिये उसे बाह्य लक्षण कहा है। [ देखो, पचाध्यायी अध्याय २ गाथा ४०१ -४०२-४०३] सम्यग्दर्शनके प्रगट होते ही ज्ञान सम्यक् हो जाता है, और आत्मानुभूति होती है, अर्थात् ज्ञान स्वज्ञेयमे स्थिर होता है । किन्तु वह