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मोक्षशास्त्र छद्मस्थको प्रत्यक्ष नही है तथापि शुद्धनय आत्माके केवलज्ञानरूपको परोक्ष वतलाता है।
[ श्री समयसार गाथा १४ के नीचेका भावार्थ ] इसप्रकार सम्यग्दर्शनका यथार्थज्ञान सम्यक्मति और श्रुतज्ञानके अनुसार हो सकता है।
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कुछ प्रश्नोत्तर (१) प्रश्न-जब ज्ञानगुण आत्माभिमुख होकर आत्मलीन हो जाता है तब उस ज्ञानको विशेष अवस्थाको सम्यग्दर्शन कहते है, क्या यह ठीक है ?
उचर-नही यह ठीक नही; सम्यग्दर्शन दर्शन ( श्रद्धा ) गुणकी पर्याय है, वह ज्ञानकी विशेष पर्याय नही है। ज्ञानकी आत्माभिमुख अवस्थाके समय सम्यग्दर्शन होता है; यह सही है किन्तु सम्यग्दर्शन ज्ञानकी पर्याय नहीं है।
(२) प्रश्न-क्या सुदेव, सुगुरु और सुशास्त्रकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन
उत्तर-वह निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं है किन्तु जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन होता है उसे वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है, क्योकि वहाँ राग मिश्रित विचार है।
(३) प्रश्न-क्या व्यवहारसम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्दर्शनका सच्चा कारण है ?
उत्तर-नही, क्योकि निश्चय भावश्रुतज्ञान परिणमित हुए बिना, निश्चय और व्यवहार होता नही किन्तु व्यवहाराभास होता है, इसलिये वह निश्चयसम्यग्दर्शनका कारण नहीं है। व्यवहारसम्यग्दर्शन (आभासस्प हो या सच्चा हो ) विकार (-अशुद्ध पर्याय ) है और निश्चय सम्यग्दर्शन अविकार-शुद्ध पर्याय है, विकार अविकारका कारण कैसे हो सकता है ? अर्थात् वे, निश्चयसम्यग्दर्शनका कारण नही हो सकता, किन्तु