________________
अध्याय १ परिशिष्ट १
१३६ किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वकषेस्मि
नमनुभवमुपयाते भाति न दूतमेव ॥९॥ अर्थ-आचार्य शुद्धनयका अनुभव करके कहते है कि इन सर्व भेदोंको गौण करनेवाला जो शुद्धनयका विषयभूत चैतन्य चमत्कार मात्र तेज पुंज
आत्मा है, उसका अनुभव होनेपर नयोकी लक्ष्मी उदयको प्राप्त नही होती। प्रमाण अस्तको प्राप्त होता है और निक्षेपोंका समूह कहाँ चला जाता है सो हम नहीं जानते। इससे अधिक क्या कहें ? द्वैत ही प्रतिभासित नही होता।
भावार्थ:-xxxxxx शुद्ध अनुभव होनेपर द्वैत ही भासित नही होता, केवल एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है।
इससे भी सिद्ध होता है कि चौथे गुणस्थानमे भी आत्माको स्वयं अपने भावश्रुतके द्वारा शुद्ध अनुभव होता है । समयसारमे लगभग प्रत्येक गाथामे यह अनुभव होता है, यह बतलाकर अनुभव करनेका उपदेश दिया है।
__ सम्यक्त्व सूक्ष्म पर्याय है यह ठीक है, किन्तु सम्यग्ज्ञानी यह निश्चय कर सकता है कि मुझे सुमति और सुश्रुतज्ञान हुआ है, और इससे श्रुतज्ञान मे यह निश्चय करता है कि उसका ( सम्यग्ज्ञानका ) अविनाभावी सम्यक ग्दर्शन मुझे हुआ है । केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और परमावधिज्ञान सम्यग्दर्शनको प्रत्यक्ष जान सकता है, इतना ही मात्र अन्तर है।
__पंचाध्यायीकी गाथा १९६-१९७-१९८ की हिन्दी टीका (पं. मक्खनलालजी कृत ) में कहा है कि "ज्ञान शब्दसे आत्मा समझना चाहिए, क्योकि आत्मा स्वयं ज्ञानरूप है; वह आत्मा जिसके द्वारा शुद्ध जाना जाता है उसका नाम ज्ञान चेतना है अर्थात् जिस समय ज्ञानगुण सम्यक् अवस्थाको प्राप्त होता है-केवल शुद्धात्माका अनुभव करता है उससमय उसे ज्ञानचेतना कहा जाता है। ज्ञानचेतना निश्चयसे सम्यग्दृष्टिको ही होती है, मिथ्यादृष्टिको कभी नही हो सकती।
सम्यक्मति और सम्यक् श्रुतज्ञान कथचित् अनुभव गोचर होनेसे प्रत्यक्षरूप भी कहलाता है। और संपूर्णज्ञान जो केवलज्ञान है वह यद्यपि