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मोक्षशास्त्र
रूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोंकी भूमिकाकी अतिक्रतिताके द्वारा समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर होनेसे, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता, वह ( आत्मा ) वास्तव में समस्त विकल्पोंसे परे, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति श्रात्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार है ।
भावार्थ --- जैसे केवली भगवान सदा नयपक्षके स्वरूपके साक्षी ( ज्ञाता - दृष्टा ) हैं उसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी जब समस्त नयपक्षोंसे रहित होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भावका अनुभव करते है तब वे नयपक्षके स्वरूपके ज्ञाता ही होते हैं । एक नयका सर्वथा पक्ष ग्रहरण किया जाय तो मिथ्यात्व के साथ मिश्रित राग होता है; प्रयोजनके वश एक नयको प्रधान करके उसे ग्रहण करे तो मिथ्यात्वके अतिरिक्त चारित्रमोहका राग रहता है; और जब नयपक्षको छोड़कर केवल वस्तुस्वरूपको जानता है तब श्रुतज्ञानी भी केवलकी भाँति वीतरागके समान ही होता है, ऐसा समझना चाहिए ।
(३) श्री समयसारकी ५ वी गाथामें आचार्यदेव कहते हैं कि"उस एकत्वविभक्त आत्माको में आत्माके निज वैभवके द्वारा दिखाता है, यदि मैं उसे दिखाऊँ तो प्रमाण करना । उसकी टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि-"यों जिसप्रकारसे मेरा ज्ञानका वैभव है उस समस्त वैभवसे दिखलाता हूँ । यदि दिखाऊँ तो स्वयमेव अपने अनुभवप्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण कर लेना” । आगे जाकर भावार्थ में बताया है कि- 'आचार्य श्रागमका सेवन, युक्तिका अवलम्बन, परापर गुरुका उपदेश, और स्वसंवेदन - इन चार प्रकारसे उत्पन्न हुए अपने ज्ञानके वैभवसे एकत्वविभक्त शुद्ध आत्माका स्वरूप दिखाते हैं । उसे सुननेवाले हे श्रोताओं ! अपने स्वसंवेदन - प्रत्यक्षसे प्रमाण करो" । इससे सिद्ध होता है कि-अपनेकों जो सम्यक्त्व होता है उसकी स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे श्रुतप्रमाण ( सच्चेज्ञान ) के द्वारा अपनेको खबर हो जाती है ।
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(४) कलश 8 मे श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं किमालिनी
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणम् क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् |