________________
अध्याय १ परिशिष्ट १
(२१)
ज्ञानचेतनाके विधानमें अन्तर क्यों है ?
१४३
प्रश्न- पंचाध्यायी और पंचास्तिकाय में ज्ञानचेतनाके विधानमें अंतर क्यों है ?
उत्तर - पंचाध्यायीमे चतुर्थं गुणस्थानसे ज्ञानचेतनाका विधान किया है [ अध्याय २ गाथा ८५४ ], और पंचास्तिकायमे तेरखें गुणस्थानसे ज्ञानचेतनाको स्वीकार किया है, किन्तु इससे उसमे विरोध नहीं आता । सम्यग्दर्शन जीवके शुभाशुभभावका स्वामित्व नही है इस अपेक्षासे पंचाध्यायोमे चतुर्थं गुणस्थानसे ज्ञानचेतना कही है । भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवने क्षायोपशमिक मावमें कर्म निमित्त होता है इस अपेक्षासे नीचे के गुणस्थानोमें उसे स्वीकार नही किया है । दोनों कथन विवक्षाधीन होनेसे सत्य हैं ।
(२२)
इस सम्बन्धमें विचारणीय नव विषय --
(१) प्रश्न- गुरणके समुदायको द्रव्य कहा है और संपूर्ण गुण द्रव्य के प्रत्येक प्रदेशमें रहते है इसलिये यदि आत्माका एक गुण ( - सम्यग्दर्शन ) क्षायिक हो जाय तो संपूर्ण आत्मा ही क्षायिक हो जाना चाहिये और उसी क्षरण उसको मुक्ति हो जानी चाहिये, ऐसा क्यों नहीं होता ?
उचर- - जीव द्रव्यमें अनंत गुण हैं, वे प्रत्येक गुरग असहाय और स्वाधीन है, इसलिये एक गुरणकी पूर्ण शुद्धि होनेपर दूसरे गुरणकी पूर्ण शुद्धि होनी ही चाहिये ऐसा नियम नही है । आत्मा प्रखंड है इसलिये एक गुण दूसरे गुणके साथ अभेद है - प्रदेश भेद नही है, किन्तु पर्यायापेक्षा से प्रत्येक गुणकी पर्यायके भिन्न २ समय में पूर्ण शुद्ध होनेमे कोई दोष नही है; जब द्रव्यापेक्षा से संपूर्ण शुद्ध प्रगट हो तब द्रव्य की संपूर्ण शुद्धि प्रगट हुई मानी जाय, किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शनके होनेपर संपूर्ण श्रात्मा क्षायिक होना चाहिये और तत्काल मुक्ति होनी चाहिये ऐसा मानना ठीक नहीं है ।