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मोक्षशास्त्र गुणस्थानोंका स्वरूप श्री जैन सिद्धान्त प्रवेशिका अन्तिम अध्यायमें दिया है, सो वहाँसे समझ लेना।
३-चतुर्थ गुणस्थानसे निश्चय सम्यग्दर्शन होता है और निश्चय सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारम्भ होता है यह बतानेके लिये इस शास्त्रमें पहले अध्यायका पहला ही सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' दिया है। धर्ममें पहले निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके कालमें अपूर्वकरणसे संवर-निर्जराका प्रारम्भ होता है। इस अधिकारके दूसरे सूत्रमे सम्यग्दर्शनको संवर-निर्जराके कारणरूपमें प्रथा नहीं कहा। इसका कारण यह है कि इस अध्यायके ४५ वें मूत्र में उसका समावेश हो जाता है।
४-जिनधर्मका अर्थ है वस्तुस्वभाव । जितने अंगमें आत्माको स्वभावदशा (-शुद्ध दशा ) प्रगट होती है उतने अंशमें जीवके 'जिनधर्म' प्रगट हुा कहलाता है। जिनधर्म कोई संप्रदाय, बाड़ा, या संघ नहीं किन्तु आत्माकी शुद्धदशा है; और आत्माकी शुद्धतामें तारतम्यता होने पर शुद्धरूप तो एक ही तरहका है अत. जिनधर्म में प्रभेद नहीं हो सकते । जैनधर्मके नामसे जो वाडावंदी देखी जाती है उसे यथार्थ में जिन धर्म नही कह सकते। भरतक्षेत्र में जिनधर्म पांचवें कालके अन्त तक रहनेवाला है अर्थात् वहाँ तक अपनी शुद्धता प्रगट करनेवाले मनुष्य इस क्षेत्रमें ही होते हैं और उनके शुद्धताके उपादान कारणकी तैयारी होनेसे आत्मज्ञानी गुरु और सत् शाखोंका निमित्त भी होता ही है। जैनधर्मके नामसे कहे जानेवाले शास्त्रोंमेसे कौनसे शास्त्र परम सत्यके उपदेशक हैं इसका निर्णय धर्म करनेके इच्छुक जीवोंको अवश्य करना चाहिये। जवतक जीव स्वयं यथार्थ परीक्षा करके कोन सच्चा देव शास्त्र और गुरु है इसका निर्णय नहीं करता, तथा आत्मज्ञानी गुरु कौन है उसका निर्णय नहीं करता तबतक गृहीतमिथ्यात्व दूर नही होता, गृहीत मिथ्यात्व दूर हुये विना अगृहीत मिथ्यात्व दूर होकर सम्यग्दर्शन तो हो ही कैसे सकता है ? इसीलिये जीवोको स्वमें जिनधर्म प्रगट करनेके लिये अर्थात् यथार्थ संवर निर्जरा प्रगट करनेके लिये सम्यग्दर्शन प्रगट करना ही चाहिए।