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अध्याय ६ सूत्र ३
६५६ (२) तपका अर्थ श्री प्रवचनसारकी गाथा १४ मे तपका अर्थ इस तरह दिया है'स्वरूपविश्रांत निस्तरंग चैतन्यप्रतपनाच्च तपः अर्थात् स्वरूपमे विश्रात, तरंगोसे रहित जो चैतन्यका प्रतपन है सो तप है।'
४-तपका स्वरूप और उस सम्बन्धी होनेवाली भूल
(१) बहुतसे अनशनादिको तप मानते हैं और उस तपसे निर्जरा मानते हैं, किंतु बाह्य तपसे निर्जरा नही होती, निर्जराका कारण तो शुद्धोपयोग है । शुद्धोपयोगमें जीवको रमणता होने पर अनशनके विना 'जो शुभ अशुभ इच्छा का निरोध होता है' सो सवर है । यदि वाह्य दुःख सहन करनेसे निर्जरा हो तो तिर्यंचादिक भी भूख प्यासादिकके दुःख सहन करते हैं इसीलिये उनके भी निर्जरा होनी चाहिये। (मो० प्र०)
(२) प्रश्न-तियंचादिक तो पराधीनरूपसे भूख प्यासादिक सहन करते हैं किंतु जो स्वाधीनतासे धर्मकी बुद्धिसे उपवासादिरूप तप करे उस के तो निर्जरा होगी न ?
उत्तर-धर्मकी बुद्धिसे बाह्य उपवासादिक करे किन्तु वहाँ शुभ, अशुभ या शुद्ध रूप जैसा उपयोग परिणमता है उसीके अनुसार बंध या निर्जरा होती है । यदि अशुभ या शुभरूप उपयोग हो तो वध होता है और सम्यग्दर्शन पूर्वक शुद्धोपयोग हो तो धर्म होता है। यदि वाह्य उपवाससे निर्जरा होती हो तो ज्यादा उपवासादि करनेसे ज्यादा निर्जरा हो और थोड़े उपवासादि करनेसे थोड़ी निर्जरा होगी ऐसा नियम हो जायगा तथा निर्जराका मुख्य कारण उपवासादि ही हो जायगा किंतु ऐसा नहीं होता, क्योकि बाह्य उपवासादि करने पर भी यदि दुष्ट परिणाम करे तो उसके निर्जरा कैसे होगी ? इससे यह सिद्ध होता है कि अशुभ, शुभ या शुद्धरूपसे जैसा उपयोगका परिणमन होता है उसीके अनुसार बंध या निर्जरा होती है इसीलिये उपवासादि तप निर्जराके मुख्य कारण नहीं हैं, किन्तु अशुभ तथा शुभ परिणाम तो वन्धके कारण हैं और शुद्ध परिणाम निर्जराका कारण है।