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मोक्षशास्त्र (३) प्रश्न-यदि ऐसा है तो सूत्र में ऐसा क्यों कहा कि 'तपसे भी निर्जरा होती है।'
उत्तर-बाह्य उपवासादि तप नही किन्तु तपकी व्याख्या इसप्रकार है कि 'इच्छा निरोधस्तपः' अर्थात् इच्छाको रोकना सो तप है । जो शुभ अशुभ इच्छा है सो तप नही है किन्तु शुभ-अशुभ इच्छाके दूर होनेपर जो शुद्ध उपयोग होता है सो सम्यक् तप है और इस तपसे ही निर्जरा होती है।
(४) प्रश्न-पाहारादि लेनेरूप अशुभ भावकी इच्छा दूर होनेपर तप होता है किन्तु उपवासादि या प्रायश्चित्तादि शुभ कार्य है इसकी इच्छा तो रहती है न ?
उत्तर--ज्ञानी पुरुषके उपवासादिकी इच्छा नहीं किंतु एक शुद्धोपयोगकी ही भावना है। ज्ञानी पुरुष उपवासादिके कालमें शुद्धोपयोग बढ़ाता है, किंतु जहाँ उपवासादिसे शरीरको या परिणामोंकी शिथिलताके द्वारा शुद्धोपयोग शिथिल होता जानता है वहाँ आहारादिक ग्रहण करता है । यदि उपवासादिसे ही सिद्धि होती हो तो श्री अजितनाथ आदि तेईस तीर्थकर दीक्षा लेकर दो उपवास ही क्यों धारण करते ? उनकी तो शक्ति भी बहुत थी, परन्तु जैसा परिणाम हुवा वैसे ही साधनके द्वारा एक चीतराग शुद्धोपयोगका अभ्यास किया ।
(मो० प्र० पृ० ३३६ ) (५) प्रश्न-यदि ऐसा है तो अनशनादिककी तप संज्ञा क्यों कही है।
उत्तर-अनशनादिकको बाह्य तप कहा है। बाह्य अर्थात् बाहरमें दूसरोंको दिखाई देता है कि वह तपस्वी है। तथापि वहाँ भी स्वयं जैसा अंतरंग परिणाम करेगा वैसा ही फल प्राप्त करेगा । शरीरको क्रिया जीवको कुछ फल देनेवाली नही है। सम्यग्दृष्टि जीवके वीतरागता बढ़तो है वही सच्चा ( यथार्थ ) तप है । अनशनादिकको मात्र निमित्तको अपेक्षा से 'तप' सज्ञा दी गई है।