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अध्याय ६ सूत्र ३-४ ५-तपके फलके बारेमें स्पष्टीकरण सम्यग्दृष्टिके तप करनेसे निर्जरा होती है और साथमें पुण्यकर्मका बन्ध भी होता है परन्तु ज्ञानी पुरुषोके तपका प्रधान फल निर्जरा है इसी. लिये इस सूत्रमे ऐसा कहा है कि तपसे निर्जरा होती है। जितनी तपमे न्यूनता होती है उतना पुण्यकर्मका बन्ध भी हो जाता है। इस अपेक्षासे पुण्यका बन्ध होना यह तपका गौण फल कहलाता है। जैसे खेती करनेका प्रधान फल तो धान्य उत्पन्न करना है, किन्तु भूसा आदि उत्पन्न होना यह उसका गौणफल है उसीप्रकार यहाँ ऐसा समझना कि सम्यग्हष्टिके तपका जो विकल्प आता है वह रागरूप होता है अतः उसके फलमे पुण्य बन्ध हो जाता है और जितना राग टूटकर ( दूर होकर ) वीतरागभाव-शुद्धोपयोग बढ़ता है वह निर्जराका कारण है। आहार पेटमे जाय या न जाय वह बन्ध या निर्जराका कारण नहीं है क्योकि यह परद्रव्य है और परद्रव्य का परिणमन आत्माके आधोन नही है इसीलिये उसके परिणमनसे आत्मा को लाभ नुकसान नहीं होता। जीवके अपने परिणामसे ही लाभ या नुकसान होता है।
६-अध्याय ८ सूत्र २३ मे भी निर्जरा सम्बन्धी वर्णन है अतः उस सूत्रकी टीका यहाँ भी बाँचना । तपके १२ भेद बतलाये हैं इस संवधी विशेष स्पष्टीकरण इसी अध्यायके १९-२० वें सूत्रमे किया गया है अता वहाँसे देख लेना ॥३॥
गुप्तिका लक्षण और भेद सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ अर्थ-[सम्यक् योगनिग्रहो ] भले प्रकार योगका निग्रह करना सो [ गुतिः ] गुप्ति है।
टीका १-इस सूत्र में सम्यक् शब्द बहुत उपयोगी है, वह यह बतलाता है कि सम्यग्दर्शनपूर्वक ही गुप्ति होती है; अज्ञानीके गुप्ति नही होती । तथा