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मोक्षशाख सम्यक् शब्द यह भी बतलाता है कि जिस जीवके गुप्ति होती है उस जीवके विषय सुखकी अभिलाषा नही होती। यदि जीवके संक्लेशता ( आकुलता) हो तो उसके गुप्ति नहीं होती। दूसरे सूत्रकी टीकामें गुप्तिका स्वरूप बतलाया है वह यहाँ भी लागू होता है ।
२. गुप्तिकी व्याख्या (१) जीवके उपयोगका मनके साथ युक्त होना सो मनोयोग है, वचनके साथ युक्त होना सो वचनयोग है और कायके साथ युक्त होना सो काययोग है तथा उसका अभाव सो अनुक्रमसे मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति है इस तरह निमित्तके अभावकी अपेक्षासे गुप्तिके तीन भेद है ।
पर्यायमें शुद्धोपयोगकी हीनाधिकता होती है तथापि उसमें शुद्धता तो एक ही प्रकारको है; निमित्तकी अपेक्षासे उसके अनेक भेद कहे जाते हैं ।
जब जीव वीतरागभावके द्वारा अपनी स्वरूप गुप्तिमें रहता है तब मन, वचन और कायकी ओरका आश्रय छूट जाता है, इसीलिये उसकी नास्तिकी अपेक्षासे तीन भेद होते हैं, ये सब भेद निमित्तके हैं ऐसा जानना ।
(२) सर्व-मोह-रागद्वेषको दूर करके खंडरहित अद्वैत परम चैतन्यमें भलीभांति स्थित होना सो निश्चयमनोगुप्ति है; सम्पूर्ण असत्यभाषाको इस तरह त्यागना कि (अथवा इस तरह मौनव्रत रखना कि ) मूर्तिक द्रव्यमें, प्रमूर्तिक द्रव्यमें या दोनोंमें वचनकी प्रवृत्ति रुके और जीव परमचैतन्यमें स्थिर हो सो निश्चयवचनगुप्ति है । संयमधारी मुनि जब अपने चैतन्यस्वरूप चैतन्यशरीरसे जड़ शरीरका भेदज्ञान करता है (अर्थात् शुद्धात्माके अनुभवमे लोन होता है ) तब अंतरंगमें स्वात्माको उत्कृष्ट मूर्तिकी निश्चलता होना सो कायगुप्ति है । ( नियमसार गाथा ६९-७० और टीका )
(३) अनादि अज्ञानी जीवोंने कभी सम्यग्गुप्ति धारण नही की । अनेकबार द्रव्यलिंगी मुनि होकर जीवने शुभोपयोगरूप गुप्ति-समिति आदि निरतिचार पालन की किन्तु वह सम्यक् न थी। किसी भी जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना सम्यग्गुप्ति नही हो सकती और उसका भव