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अध्याय ६ सूत्र ४-५
६६३ भ्रमण दूर नहीं हो सकता। इसलिये पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करके क्रमक्रमसे आगे बढ़कर सम्यग्गुप्ति प्रगट करनी चाहिये।।
(४) छठे गुणस्थानवर्ती साधुके शुभभावरूप गुप्ति भी होती है इसे व्यवहार गुप्ति कहते हैं, किन्तु वह प्रात्माका स्वरूप नहीं है, वह शुभ विकल्प है इसीलिये ज्ञानी उसे हेयरूप समझते हैं, क्योंकि इससे वन्ध होता है, इसे दूर कर साधु निर्विकल्पदशामे स्थिर होता है। इस स्थिरताको निश्चयगुप्ति कहते हैं; यह निश्चयगुप्ति सवरका सच्चा कारण है ॥४॥
दूसरे सूत्रमें संवरके ६ कारण बतलाये हैं, उनमेसे गुप्तिका वर्णन पूर्ण हुआ अब समितिका वर्णन करते है।
समितिके ५ भेद ईाभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥
अर्थ-[ ईर्याभाषषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः ] सम्यक् ईर्या, सम्यक् भाषा, सम्यक् ऐषरणा, सम्यक् प्रादाननिक्षेप और सम्यक् उत्सर्ग-ये पाँच [ समितयः ] समिति हैं (चौथे सूत्रका 'सम्यक्' शब्द इस सूत्रमे भी लागू होता है )
टीका १-समितिका स्वरूप और उस सम्बन्धी होनेवाली भूल
(१) अनेकों लोग परजीवोंकी रक्षाके लिये यत्नाचार प्रवृत्तिको समिति मानते है, किन्तु यह ठीक नही है, क्योकि हिंसाके परिणामोसे तो पाप होता है, और यदि ऐसा माना जावे कि रक्षाके परिणामोसे संवर होता है तो फिर पुण्यबन्धका कारण कौन होगा ? पुनश्च एषणा समितिमे भी यह अर्थ घटित नहीं होता क्योकि वहाँ तो दोष दूर होता है किन्तु किसी पर जीवकी रक्षाका प्रयोजन नहीं है।
(२) प्रश्न-तो फिर समितिका यथार्थ स्वरूप क्या है ?
उचर-मुनिके किंचित् राग होने पर गमनादि क्रिया होती है, वहां उस क्रियामें अति आसक्तिके अभावसे उनके प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं