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मोक्षशास्त्र होती, तथा दूसरे जीवोंको दुःखी करके अपना गमनादिरूप प्रयोजन नहीं साधते, इसीलिये उनसे स्वयं दया पलती है, इसी रूपमें यथार्थ समिति है।
(देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक देहली पृष्ठ ३३५) अ-अभेद उपचाररहित जो रत्नत्रयका मार्ग है, उस मार्गरूप परम धर्म द्वारा अपने प्रात्म स्वरूपमें 'सम' अर्थात् सम्यक् प्रकारसे 'इता' गमन तथा परिणमन है सो समिति है । अथवा
ब-स्व आत्माके परम तत्त्वमें लीन स्वाभाविक परमज्ञानादि परम धर्मोकी जो एकता है सो समिति है। यह समिति संवर-निर्जरारूप
(देखो श्री नियमसार गाथा ६१) (३) सम्यग्दृष्टि जीव जानता है कि आत्मा परजीवका घात नहीं कर सकता, परद्रव्योंका कुछ नहीं कर सकता, भाषा बोल नहीं सकता, शरीरकी हलन-चलनादिरूप क्रिया नहीं कर सकता, शरीर चलने योग्य हो तव स्वयं उसकी क्रियावती शक्तिसे चलता है, परमाणु भाषारूपसे परिणमनेके योग्य हो तब स्वयं परिणमता है, पर जीव उसके आयुकी योग्यताके अनुसार जीता या मरता है, लेकिन उस कार्यके समय अपनी योग्यतानुसार किसी जीवके राग होता है, इतना निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसीलिये निमित्तकी अपेक्षासे समितिके पाँच भेद होते हैं, उपादान अपेक्षा तो भेद नही पड़ता।
(४) गुप्ति निवृत्ति स्वरूप है और समिति प्रवृत्ति स्वरूप है। सम्यग्दृष्टिको समितिमें जितने अंशमें वीतरागभाव है उतने अंशमें संवर है और जितने अंशमें राग है उतने अंशमें वन्ध है।
(५) मिथ्यादृष्टि जीव तो ऐसा मानता है कि मैं पर जीवोंको बचा सकता हूँ तथा मैं पर द्रव्योंका कुछ कर सकता हूँ, इसीलिये उसके समिति होती ही नहीं। द्रव्यलिंगी मुनिके शुभोपयोगरूप समिति होती है किन्तु वह सम्यक् समिति नही है और संवरका कारण भी नहीं है। पुनश्च वह तो गुभोपयोगको धर्म मानता है, इसीलिये वह मिथ्यात्वी है।