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अध्याय ६ सूत्र ५
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२- पहले समितिको आस्रवरूप कहा था और यहाँ संवररूप कहा है, इसका कारण बतलाते है
छट्ठ े अध्यायके ५ वे सूत्रमे पच्चीस प्रकारकी क्रियाओको आस्रव का कारण कहा है; वहाँ गमन आदिमे होनेवाली जो शुभरागरूप क्रिया है सो ईर्यापथ क्रिया है और वह पांच समितिरूप है ऐसा बतलाया है और उसे बंधके कारणोमे गिना है । परन्तु यहाँ समितिको संवरके कारणमें गिना है, इसका कारण यह है कि, जैसे सम्यग्दृष्टिक्रे वीतरागताके अनुसार पाँच समिति सवरका कारण होती है वैसे उसके जितने श्रशमे राग है उतने अंश में वह श्रास्रवका भी कारण होती है । यहाँ सवर अधिकारमे संवरकी मुख्यता होनेसे समितिको संवरके कारणरूपसे वर्णन किया है और छट्ट अध्यायमे आस्रवकी मुख्यता है अतः वहाँ समितिमें जो राग है उसे आसव के कारणरूपसे वर्णन किया है ।
३--उपरोक्त प्रमाणानुसार समिति वह चारित्रका मिश्रभावरूप है ऐसा भाव सम्यग्दृष्टिके होता है, उसमे आंशिक वीतरागता है ओर आंशिक राग है । जिस अंशमे वीतरागता है उस प्रशके द्वारा तो सवर ही होता है और जिस श्रंशमें सरागता है । उस अंशके द्वारा बघ हो होता है । सम्यग्दृष्टिके ऐसे मिश्ररूप भावसे तो सवर और बघ ये दोनों कार्य होते हैं किंतु अकेले रागके द्वारा ये दो कार्य नही हो सकते; इसीलिये 'अकेले प्रशस्त राग' से पुण्याश्रव भी मानना और संवर निर्जरा भो मानना सो भ्रम है । मिश्ररूप भावमें भी यह सरागता है और यह वीतरागता है ऐसी यथार्थ पहिचान सम्यग्दृष्टिके ही होती है, इसीलिये वे अवशिष्ट सरागभावको हेयरूपसे श्रद्धान करते हैं । मिथ्यादृष्टि के सरागभाव और वीतरागभावकी यथार्थ पहिचान नही है, इसीलिये वह सरागभावमे संवरका भ्रम करके प्रशस्त रागरूप कार्योको उपादेयरूप श्रद्धान करता है । ( मो० प्रकाशक - पृष्ठ ३३४-३५ ) ४ – समितिके पांच भेद
जब साधु गुप्तिरूप प्रवर्तनमे स्थिर नही रह सकते तव वे ईर्ष्या, भाषा, एषरणा, श्रादान निक्षेप और उत्सर्ग इन पाँच समितिमे प्रवर्तते है
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