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मोक्षशास्त्र
(६) वास्तव में आत्माका स्वरूप ( निजरूप ) हो परम गुप्ति है, इसीलिये आत्मा जितने अंशमें अपने शुद्धस्वरूप में स्थिर रहे उतने श्रंश में गुप्ति है [ देखो, श्री समयसार कलश १५८ ]
३- आत्माका वीतराग भाव एकरूप है और निमित्तकी अपेक्षासे गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय प्रोर चारित्र ऐसे प्रथक् प्रथक् भेद करके समझाया जाता है; इन भेदोंके द्वारा भी अभेदता बतलाई है । स्वरूपकी श्रभेदता संवर निर्जराका कारण है ।
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४ - गुप्ति, समिति आदिके स्वरूपका वर्णन चोथे सूत्रसे प्रारम्भ करके अनुक्रमसे कहेगे ॥ २ ॥
निर्जरा और संवरका कारण तपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥
अर्थ - [ तपसा ] तप से [ निर्जरा व ] निर्जरा होती है ओर संवर भी होता है |
टीका
१- दश प्रकारके धर्ममें तपका समावेश होजाता है तो भी उसे यहाँ प्रथक् कहनेका कारण यह है कि यह संवर और निर्जरा दोनोंका कारण है और उसमें संवरका यह प्रधान कारण है ।
२- यहाँ जो तप कहा है सो सम्यक् तप है, क्योंकि यह तप ही संवर निर्जराका कारण है । सम्यग्दृष्टि जीवके ही सम्यक् तप होता है मिथ्यादृष्टिके तपको बालतप कहते हैं और यह श्रास्रव है, ऐसा छट्ट अध्याय के १२ वें सूत्रकी टीकामें कहा है । इस सूत्र में दिये गये 'च' शब्दमें वालतप का समावेश होता है जो सम्यग्दर्शन और आत्मज्ञानसे रहित हैं ऐसे जीव चाहे जितना तप करें तो भी उनका समस्त तप बालतप ( अर्थात् अज्ञानतप, मूर्खतावाला तप ) कहलाता है ( देखो समयसार गाथा १५२ ) सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाले तपको उत्तम तपके रूपमें इस अध्यायके छट्ट सूत्रमें वर्णन किया है ।