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मोक्षशास्त्र
श्रुतज्ञानका वर्णन, उत्पत्तिका क्रम तथा उसके भेद श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥
अर्थ- [ श्रुतम् ] श्रुतज्ञान [ मतिपूर्व ] मतिज्ञान पूर्वक होता है अर्थात् मतिज्ञानके बाद होता है, वह श्रुतज्ञान [ द्व्यनेकद्वादशभेदम् ] दो, अनेक और बारह भेदवाला है ।
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टीका
(१) सम्यग्ज्ञानका विषय चल रहा है, [ यह सम्यक् श्रुतज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाला सूत्र है, मिथ्या श्रुतज्ञानके सम्बन्धमें ३१ वाँ सूत्र कहा है ।
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देखो सूत्र e ] इसलिये
ऐसा समझना चाहिये ।
(२) श्रुतज्ञान --- मतिज्ञानसे ग्रहण किये गये पदार्थसे, उससे भिन्न पदार्थ ग्रहण करनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । जैसे—
१- -सद्गुरुका उपदेश सुनकर आत्माका यथार्थ ज्ञान होना । इसमें उपदेश सुनना मतिज्ञान है; और फिर विचार करके श्रात्माका भान प्रगट करना श्रुतज्ञान है ।
२ -- शब्द से घटादि पदार्थोको जानना । इसमें घट शब्दका सुनना मतिज्ञान है, और उससे घट पदार्थका ज्ञान होना श्रुतज्ञान है । इसमें धुवेको आँखसे देखकर और घुर्वेसे अग्निका अनुमान
३-- -घुवेंसे अग्निका ग्रहण करना । जो ज्ञान हुआ सो मतिज्ञान है; करना सो श्रुतज्ञान है ।
४ -- एक मनुष्यने 'जहाज' शब्द सुना सो यह मतिज्ञान है । पहिले जहाजके गुण सुने अथवा पढ़े थे; तत्सम्बन्धी ( 'जहाज ' शब्द सुनकर ) जो विचार करता है सो श्रुतज्ञान है ।
(३) मतिज्ञानके द्वारा जाने हुए विषयका अवलम्बन लेकर जो उत्तर तर्कणा ( दूसरे विषयके सम्बन्धमे विचार ) जीव करता है सो श्रुतज्ञान है | श्रुतज्ञानके दो भेद हैं- ( १ ) अक्षरात्मक, (२) अनक्षरात्मक ।